समय-आवर्त' -गाँधी का ग्राम-स्वराज - मृत्युंजय पाण्डेय

मृत्युंजय पाण्डेय - जन्म : 20 जुलाई 1982 शिक्षा : एम.ए., एम.फिल., पीएच. डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय) आलोचनात्मक पुस्तकें : कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव; कहानी से संवाद; कहानी का अलक्षित प्रदेश; रेणु का भारत; कविता के सम्मुख; साहित्य, समय और आलोचना सम्पादन : नयी सदी : नयी कहानियाँ (तीन खंडों में); प्रेमचंद : निर्वाचित कहानियाँ; जयशंकर प्रसाद : निर्वाचित कहानियाँ सम्मान : देवीशंकर अवस्थी सम्मान जीविका : अध्यापन, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)


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महात्मा गांधी ने भारत को, भारतीय जनता को करीब से देखा-जाना था। उनके दुख-दर्द से वे परिचित थे। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। यदि यह कहा जाए कि गांधी स्वयं में भारत हैं तो गलत न होगा। आने वाले दिनों में हमारी पीढ़ी को शायद यह विश्वास न हो कि इस देश में गांधी जैसा एक शख्स हुआ था, जो किसी से नहीं डरता था। जिसने हमेशा सत्य का साथ दिया। जिसने अहिंसा को अपना हथियार बनाया। गांधी चाहते थे कि सारा हिंदुस्तान इस हथियार को अपनाए। वे स्वार्थ और क्रोध के साथ अविश्वास और अधीरता को भी जीत चुके थे। उनमें अपार धीरज था। वे अपने मन और संकल्प दोनों के प्रति दृढ़ थे। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर गांधी ने न लिखा हो। शिक्षा, मजदूर, किसान जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों से लेकर नगण्य समझे जाने वाले विषय जैसे—भिखारी, आदिवासी और वेश्यावृत्ति तक पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। गांधीजी इन सभी को भारत का ही अंग समझते थे। उनकी नजर में सब बराबर थे। उनके लिए कोई भी विषय त्याज्य नहीं है। वे सबको समान महत्त्व देते हैं। उन्हें भारत की हर एक चीज पसंद थी। उनका मानना था 'भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।' इस कर्मभूमि में कर्म के द्वारा आप जो कुछ चाहें प्राप्त कर सकते हैं।


        जैसे-जैसे हम विकास की मंजिलें तय करते जा रहे हैं, गांधी उतने ही प्रासंगिक होते जा रहे हैं। आज गांधी को फिर से पढ़ा जा रहा है। हम जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, उसकी राह गांधी के यहाँ ढूँढी जा रही है। कुछ लोगों का मानना है, हम वर्तमान दलदल से गांधी के मार्ग पर चलकर ही निकल सकते हैं और कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनका मानना है कि गांधी ने भारत का अहित ही किया। उनके लिए गांधी नहीं, गोडसे महत्त्वपूर्ण हैं। गांधी की हत्या का उन्हें रत्ती भर भी अफसोस नहीं होता। दुख तब होता है जब यह बात पढे-लिखे लोग करते हैं। जाहिर तौर पर उन्होंने गांधी को नहीं पढ़ा होगा। गांधी को पढ़ने वाला, गांधी को जानने वाला, गांधी के विचारों को गलत नहीं ठहरा सकता। हो सकता है आप उनसे कहीं असहमत हों, पर पूरी तरह से आप उन्हें खारिज नहीं कर सकते। गांधी को जानना भारत को जानना है।


      गांधी ने भारत का एक सपना सँजो रखा था। भारत की एक तस्वीर बना रखी थी जिसे गांधीजी 'मेरे सपनों का भारत' कहते थे। आजादी के बाद वे भारत का विकास गाँवों से करना चाहते थे। वे इस बात को न जाने कई बार दुहरा चुके थे  कि “भारत अपने चन्द शहरों में नहीं बल्कि सात लाख 


गाँवों में बसा हुआ है।" पर गांधी का यह सपना पूरा नहीं हुआ। आजादी के बाद गाँवों को नजरअंदाज किया गया। विकास की नीव शहर में रखी गई और गाँव को शहर की जरूरत पूरा करने वाला साधन माना गया। अन्न से लेकर, मजदूर तक वहीं से शहर में ढोए गए। हमने गाँव की ओर पलटकर भी नहीं देखा। आज भी स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। कुपोषण की वजह से हर साल हजारों बच्चे मर जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले बिहार के मुजफ्फरपुर में कुपोषण से न जाने कितने बच्चे मर गए। इन मौतों को छिपाने के लिए सरकार की ओर से हर बार नए बहाने बनाए जाते हैं। शायद शहरी लोगों को विश्वास न हो कि गाँवों में आज भी गरीब लोग नमक, मिर्च, तेल से रोटी खाकर सो जाते हैं। कई घरों में तो दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। गाँव के मजदूर शहर में आकर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते हैं, लेकिन उन्हें छत नसीब नहीं होती। गांधीजी को यह मंजूर नहीं था।


    गांधीजी चाहते थे कि आजाद भारत का हर एक गाँव आत्मनिर्भर हो। यहाँ तक कि उसे अपनी जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर न रहना पड़े। अनाज से लेकर, कपड़ा और मन बहलाने की चीज से लेकर पशु चराने तक के साधन उसके खुद के होने चाहिए। आर्थिक लाभ के लिए वे उपयोगी फसलों की खेती तो करें, लेकिन गाँजा, तंबाकू, अफीम वैगरह जैसी नशीली चीजों की खेती करने से वे बचेंइससे तत्काल लाभ तो होगा, लेकिन सबसे अधिक क्षति उन्हें ही पहुंचेगी। २ अगस्त १९४२ के 'हरिजन सेवक' में, अपने सपने को ठोस आधार देते हुए गांधीजी लिखते हैं-"हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला, और सभा-भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा-वाटर वर्क्स होंगे जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। जात-पाँत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहीं रहेंगे।" यह गांधीजी का आदर्श गाँव है। उनके गाँव की चौकीदारी-पहरेदारी गाँव के लोग ही करेंगे। गाँव का शासन कोई बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि गाँव की पंचायत ही चलाएगी और पंचों को गाँव के लोग ही चुनेंगे। कुछ लोगों को यह असंभव लग सकता है, लेकिन यह संभव है। गांधीजी कहते हैं-“आज भी अगर कोई चाहे तो अपने यहाँ इस तरह का प्रजातंत्र कायम कर सकता हैउसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज्यादा दस्तंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि उसका गाँव से जो भी कारगर संबंध है, वह सिर्फ मालगुजारी वसूल करने तक ही सीमित है। यहाँ मैंने इस बात का विचार नहीं किया है कि इस तरह के गाँव का अपने आस-पड़ोस के गाँवों के साथ या केन्द्रीय सरकार के साथ, अगर वैसी कोई सरकार हुई, क्या संबंध रहेगा। मेरा हेतु तो ग्राम-शासन की एक रूपरेखा पेश करने का ही है। इस ग्राम-शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला सम्पूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा। व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी होगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के नियम के वश होकर चलेंगे। अपने गाँव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा। क्योंकि हर एक देहाती के जीवन का सबसे बड़ा नियम यह होगा कि वह अपनी और अपने गाँव की इज्जत की रक्षा के लिए मर मिटे।" हम देख सकते हैं गांधी के सोच की केन्द्रीय धुरी गाँव है। वे गाँव के साथ-साथ आत्म-सम्मान की रक्षा पर विशेष जोर देते हैं। जरा सोचिए-वह कितना सुन्दर गाँव होगा—जिसकी अपनी नाटकशाला, अपनी पाठशाला, अपनी खेती, अपनी पंचायत, अपना भंगी, अपना चौकीदार, अपना वैद्य और अपना शिक्षक होगा। इतना ही नहीं उसके अपने कवि, चित्रकार, शिल्पी, भाषा के पंडित्त और शोध करने वाले तक होंगेयानी, गांधी एक ऐसे गाँव का स्वपन देख रहे थे जिसमें किसी चीज की कमी न हो। वे गाँव को मजबूत और स्वावलम्बी देखना चाहते थे। उसे अपने पैरों पर खड़ा होता देखना चाहते थे। वे यह हरगिज नहीं चाहते थे कि हमारे गाँव कूड़े-कचरे के ढेर में तब्दील हों, लेकिन उनके न चाहने के बाद भी आज हमारे गाँव कूड़े के ढेर में तब्दील होते जा रहे हैं। वहाँ जीवन जीने का कोई भी साधन उपलब्ध नहीं है। गांधीजी यह भी जोड़ते हैं कि-"संभव है ऐसे गाँव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी खत्म हो जाए।" यदि एक जिंदगी खपाने से लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी सँवर सकती हो तो यह कार्य जरूर किया जाना चाहिए।


      सत्याग्रह, असहयोग और अहिंसा के पुजारी गांधीजी यह चाहते थे कि आजादी नीचे से शुरू हो। समाज के सबसे कमजोर आदमी के साथ वे खड़ा होते हैं। पहले उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। २८ जुलाई १९४६ के 'हरिजन सेवक' में वे लिखते हैं-"उसका फैलाव एक के ऊपर एक के ढंग पर नहीं, बल्कि लहरों की तरह एक के बाद एक की शकल में होगा। जिंदगी मीनार की शक्ल में नहीं होगी, जहाँ ऊपर की तंग चोटी को नीचे के चौड़े पाए पर खड़ा होना पड़ता है। वहाँ तो समुद्र की लहरों की तरह जिंदगी एक के बाद एक घेरे की शक्ल में होगी और व्यक्ति उसका मध्यबिन्दु होगा।" गांधी गाँव और उसके आखिरी आदमी द्वारा एक वृहद समाज की कल्पना कर रहे थे। जाहिर तौर पर गांधी इसमें भी असफल रहे। वैसे देखा जाए तो गांधी कई जगह असफल हुए। जैसे-“गांधीजी देश का विभाजन नहीं चाहते थे। वे उसे रोक नहीं पाए। वे कांग्रेस और सरकारी कामकाज से अंग्रेजी को निकाल देना चाहते थे, नहीं निकाल पाए। वे अछूतों को ऊँची जातियों के बराबर दर्जा देना चाहते थे, नहीं दे पाए। वे विदेशी पूँजी के दबाव से देश को मुक्त करना चाहते थे, नहीं कर पाए। वे चाहते थे गांधी और सारी दुनिया खादी पहनें, उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। वे चाहते थे, पूँजीपति, जमींदार और धनी लोग अपनी संपत्ति का उपयोग गरीबों के हित में करें, उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई। वे चाहते थे, हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव खत्म हो, वैसा नहीं हुआ।" (रामविलास शर्मा) लेकिन इन सारी असफलताओं के बावजूद गांधी सफल हैं। उन्होंने बहुत-से असंभव कार्य करके दिखाए और इसमें कोई शक नहीं कि यदि हम गांधी के दिखाए मार्ग पर चलें तो हमारे लिए भी कुछ भी असंभव नहीं रहेगा। गांधी का मतलब ही है संभव। असंभव उनके यहाँ है ही नहीं। उसे वे पास भी नहीं आने देते।


      कुछ लोगों को गांधीजी की आदर्श ग्राम योजना सनकी दिमाग की उपज लगती है और गांधीजी इस बात को भलीभाँति जानते थे। आखिर गांधी से अधिक भारत की जनता को किसने जाना है! वे कहते हैं- "मुझे ताना दिया जा सकता है कि यह सब तो खयाली तस्वीर है, इसके बारे में सोचकर वक्त क्यों बिगाड़ा जाए? युक्लिड की परिभाषा वाला बिन्दु कोई मनुष्य खींच नहीं सकता, फिर भी उसकी कीमत हमेशा रही है और रहेगी। इसी तरह मेरी इस तस्वीर की भी कीमत है। इसके लिए मनुष्य जिंदा रह सकता है। अगरचे इस तस्वीर को पूरी तरह बनाना या पाना संभव नहीं है, तो भी इस सही तस्वीर को पाना या इस हद तक पहुँचना हिंदुस्तान की जिंदगी का मकसद होना चाहिए। जिस चीज को हम चाहते हैं, उसकी सही-सही तस्वीर हमारे सामने होनी चाहिए, तभी हम उससे मिलती-जुलती कोई चीज पाने की आशा रख सकते हैं। अगर हिंदुस्तान के हर एक गाँव में कभी पंचायत राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूँगा जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी।" गुलाम भारत के सफल गांधी आजाद भारत में असफल हो गए। हमने गांधी को नहीं अपनाया। उनके आदर्श ग्राम-योजना को आजादी के साथ ही भुला दिया। हमारे लिए भारत गाँवों में नहीं चन्द शहरों में बसा हुआ है। इसे ही हम भारत मान रहे हैं और सारी दुनिया से मनवा भी रहे हैं।


    गांधीजी जिस भारत का सपना देख रहे थे, जिस आदर्श गाँव की वे नीव रखना चाहते थे, उसमें यंत्रों के लिए कोई स्थान नहीं था। पर वे यंत्रों के पूरे विरोधी कभी नहीं रहे। उनका मानना था-"यंत्रों से काम लेना उसी अवस्था में अच्छा होता है, जब कि किसी निर्धारित काम को पूरा करने के लिए आदमी बहुत ही कम हों या नपे-तुले हों। पर यह बात हिंदुस्तान में तो है नहीं। यहाँ काम के लिए जितने आदमी चाहिए, उनसे कहीं अधिक बेकार पड़े हुए हैं। इसलिए उद्योगों के यंत्रीकरण से यहाँ की बेकारी घटेगी या बढ़ेगी?" गांधीजी ने यह सवाल १९३४ में पूछा था। आज जवाब देने की जरूरत नहीं है। आज हर तरफ बेकारी-बेरोजगारी का हाहाकार मचा हुआ है। गांधीजी इस बात को भली-भाँति जानते थे कि उद्योगों का पहला हमला गाँवों की रोजी-रोटी पर होगा। गाँव के सारे उद्योग धीरे-धीरे बंद हो जाएंगे। जहाँ दस मजदूर काम करते थे उसके बदले एक मजदूर काम करेगा। वे यह कभी नहीं चाहते थे कि दस आदमियों की रोटी छीनकर एक आदमी को सौंपी जाए। गांधी एक की नहीं दस की सोच रहे थे। उनके लिए चन्द शहर के कुछ लोग नहीं, बल्कि सात लाख गाँवों के करोड़ों लोग महत्त्वपूर्ण थे।


    ___गाँवों का विघटन शहरीकरण और उद्योग-धंधों की सबसे बड़ी दुर्घटना है। बेकारी की समस्या ने किसान तथा उनसे जुड़े गाँव के तमाम लोग, जैसे-बढ़ई, लोहार, नाई, धोबी, तेली, कुम्हार, माली आदि के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया। गाँव की संस्कृति में उपर्युक्त सभी जातियाँ-जो कि अपने-अपने पेशे से जुड़ी हुई हैं, साल भर तक बिना पैसे के किसानों का काम करती थीं। पैसे के बदले उन्हें अनाज या जमीन का कोई टुकड़ा मिलता था, जिस पर वे खेती करके अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। नाई उनका तथा उनके परिवार का हजामत बनाता था। धोबी कपड़ा धोता था। लोहार उनके दैनंदिक खेती-बारी रूपी जीवन के लिए औजार बनाता था। बढ़ई उनके सोने-बैठने के लिए चौकी तथा कुर्सी बनाता था। तेली की रसोई घर तक पहुँच थी और माली की पूजा गृह तक। इतना ही नहीं गाँव की सबसे तिरस्कृत जाति भी इन्हीं लोगों पर आश्रित थी। लेकिन आजादी के बाद यह कुटुंब टूटा। रोटी की तलाश में सब शहर की ओर जाकर बिला गए। वे आदमी से मजदूर में बदल गए। यंत्र ने उनकी कमर तोड़ दी। इसके अलावा कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों के सहारे से कहूँ तो-गाँव के उजड़ने से वहाँ का "पूरा साहित्य अपने लोक-परिवेश से कटकर शहरों की मेजों या मंचों पर आ गया है और गाँव लगभग पूरी तरह उसकी अनुगूंजों से खाली हो गए हैं।" आज गाँव में एक खास तरह की मनहूसियत छाई रहती है।


      __मिलों की वजह से ही गांधीजी के चरखे का संगीत बंद हुआ। खादी का सपना, सपना ही रह गया। 'खादी हिंदुस्तान की समस्त जनता की एकता की, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता की प्रतीक' थी। जिसे पंडितजी 'हिंदुस्तान की आजादी की पोशाक' कहते थे। आज खादी के साथ-साथ हाथ से अनाज कूटना-पीसना, तेल निकालना, गुड़ बनाना, चरवाही, हलवाही, पशु पालन आदि जैसी चीजें भी बंद हो गई हैं। गांधीजी ने चरखे का आविष्कार बड़े उद्देश्य से किया था। उनका विश्वास था कि सूत कताई से हजारों-लाखों गरीबों को मदद मिलेगी। भूख से व्यथित पेट को रोटी मिलेगी। इतना ही नहीं इससे भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में भी बड़ी मदद मिलगी। पर ऐसा नहीं हो पाया। जब से राजनीतिक पार्टियों का गाँवों में प्रवेश हआ है, गाँवों की स्थिति और बदतर हुई है। इन पार्टियों ने जनमानस को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया। इनकी वजह से गाँवों में दलबंदी और मतभेद की शुरुआत हुई। आपसी बैर बढ़ा। जात-पाँत बढ़ा। इन पार्टियों की वजह से गाँवों की स्वाभाविक तरक्की रुकी है। ये बाधक बने हैं, साधक नहींइस चीज को बहुत ही बारीकी से 'रेणु' के 'मैला आँचल' उपन्यास में दिखाया गया है। 'रेणु' गांधीजी से बहुत प्रभावित थे। 'मैला आँचल' में गांधीवादी प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है। गांधीजी से प्रभावित होकर ही 'रेणु' मेरीगंज में चरखा सेंटर खुलवाते हैं। पर, अफसोस गांधीजी की मृत्यु के साथ वह भी बंद हो गया।


    गांधीजी भारत के भौगोलिक परिस्थिति से भली-भाँति परिचित थे। वह प्रकृति और मनुष्य के संबंध के महत्त्व को जानते थे। प्रकृति से अलगाव की वजह से ही आज हमारा जीवन बेहद जटिल और चुनौती-पूर्ण हो गया है। गांधीजी नहीं चाहते थे कि भारत के अस्तित्व पर, उसकी संस्कृति, उसकी परंपरा पर संकट आए। वे नहीं चाहते थे कि बेकारी, गरीबी, बीमारी और जहालत इसका सच बने। इसीलिए वे हमेशा गाँव के विकास पर जोर देते रहे। वे जानते थे जब तक गाँव सुरक्षित हैं, हम भी सुरक्षित हैं।


                                                          सम्पर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा-711101, पश्चिम बंगाल, मो.नं.: 9681510596                                                             मूल निवासी : दिघवा दुबौली, गोपालगंज, बिहार