समय-आवर्त - अन्याय के विरूद्ध संघर्ष की अनवरत यात्रा - रमेश दीक्षित

रमेश दीक्षित - जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पी-एच.डी., लखनऊ विश्वविद्यालय राजनीतिशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष, प्रसिद्ध राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, लेखक और कवि।


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१९१५ में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद गांधी सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की अपनी अनूठी शैली के कारण आम जनता के बीच पहले 'बापू' फिर 'महात्मा' के रूप में रूपान्तरित होकर इस हद तक जनता की श्रद्धा और विश्वास का केन्द्र बिन्दु बन गए कि समाज में "चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर। पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गए कोटि दृग उसी ओर" जैसी स्थिति बन गई।


      विश्व के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों और अलग-अलग काल खण्डों में घटित हुई विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक क्रान्तियों का कोई भी नायक गांधी जैसी लोकप्रियता और जनसामान्य का अकुंठ विश्वास हासिल नहीं कर सकागांधी को तो फटेहाल किसानों, मजदूरों और मुख्तलिफ सामाजिक स्तरों के लोगों ने बद्ध और ईसा मसीह जैसे पैगम्बरों के अवतार के रूप में ही देखा, उन्हें हांड मांस के इंसान के रूप में देखने की बजाय चमत्कारी महामानव ही समझा गया क्योंकि सिर्फ घटनों तक धोती पहनने वाला निहत्था नंगा फकीर तत्कालीन सबसे शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से ललकारने का साहस कैसे कर सकता था?


      यह संयोग मात्र नहीं है कि उपनिवेशवाद विरोधी मुक्ति आन्दोलनों के अनेक नायकों ने ही नहीं बल्कि रंगभेद यानी चमड़ी के रंग के आधार पर बरती जाने वाली गैर बराबरी के खिलाफ लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेलसन मंडेला जैसे जननायकों ने अपना आदर्श गांधी को ही माना।


      गांधी ऊपर से जितना सीधे-साधे और सरल दिखते है, उतने सरल वह हैं नहीं। उन जैसा जटिल राजनीतिक व्यक्तित्व शायद ही कोई रहा हो। कई बार वह परस्पर विरोधी अवधारणाओं का समर्थन करते भी दिख जाते है। पर दरअसल वह अपनी शर्तों पर और पूरी दृढ़ता के साथ अपनी स्वनिर्मित स्थापनाओं पर डटे रहने वाले ऐसे महापुरूष है जिनकी घर के बड़े-बूढ़े बुजुर्गों की तरह न तो किसी तरह की उपेक्षा की जा सकती है और न जिनसे पूरी तरह सहमत ही हुआ जा सकता है। ___


      गांधी के ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रयोगों यानी अपनी काम वासना पर सम्पूर्ण नियंत्रण और इस तरह अपने काम विषयक संयम की सीमा और क्षमता की पड़ताल करने की कोशिशों को तत्कालीन (बीसवीं सदी के तीसरे, चौथे दशक में) पारम्परिक और रूढ़िवादी भारतीय समाज की विभिन्न परतों द्वारा सार्वजनिक चर्चा का विषय न बनाया जाना और लगभग अनदेखा कर दिया जाना कोई छोटी मोटी बात नहीं है।


      इसी तरह १९३७ में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के विरोध की परवाह न करते हुए सुभाष चन्द्र बोस, जो उस समय विदेश में थे, को ससम्मान स्वयं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के लिए अमंत्रित करना और सुभाष द्वारा अगले वर्ष दूसरे कार्यकाल के लिए अनुरोध किए जाने पर उनसे इस कदर रूष्ट हो जाना कि पहले तो उनके विरूद्ध पट्टाभि सीतारमैय्या की उम्मीदवारी को पूरा समर्थन देना और सीतारमैय्या की पराजय को अपनी पराजय मानते हुए सुभाष चन्द्र बोस की तमाम अनुनय विनय को दरकिनार करते हुए आचार्य कृपालानी, राजाजी, राजेन्द्र प्रसाद जैसे अपने कट्टर समर्थकों को सुभाष की कार्यकारिणी का सदस्य बनने की सलाह न देने और अन्ततः उनके लिए कांग्रेस से त्यागपत्र देने की परिस्थितियां पैदा कर देने जैसी बातें समझ से परे लगती हैं।


    इतना ही नहीं अपने विचारों के साथ पर्याप्त संगति रखने वाले सरदार पटेल की तुलना में उन जवाहर लाल नेहरू को अपना पूर्ण समर्थन देते रहना जो आजादी के बाद एक नया भारत बनाने की गांधी की संकल्पनाओं के साथ पूरी तरह तालमेल बिठाने को कभी भी तैयार नहीं हो सके और जिनके साथ वैचारिक असहमति इस सीमा तक हो गई थी कि १९२७ के मद्रास अधिवेशन के बाद गांधी ने नेहरू को यह सख्त चेतावनी देना भी जरूरी समझा कि यदि वह चाहे तो अपनी अलग राह पकड़ने का फैसला करने के लिएआजाद हैं। उन्हीं जवाहर लाल नेहरू को १९२९ में लाहौर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाते समय गांधी ने पटेल या अन्य किसी वरिष्ठ कांग्रेस नेता की दावेदारी की जरा भी फिक्र नहीं की।


    जवाहर लाल नेहरू के साथ गांधी के राजनीतिक सम्बन्धों की रागात्मक-द्वन्द्वात्मकता को समझे बिना आज तक पूछे जा रहे इस सवाल का जवाब दे पाना मुमकिन न होगा कि कांग्रेस संगठन पर मजबूत पकड़ और लगभग सभी प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियों की संस्तुति के बावजूद गांधी ने पहले तो अंतरिम सरकार के मुखिया (१९४६) और बाद में स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पटेल की तुलना में नेहरू के पक्ष में अपनी निर्णायक सहमति क्यों दी?


      जहां तक जवाहर लाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करने की बात है, गांधी ने वर्धा में हुए कांग्रेस अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए १५ जनवरी १९४२ को सार्वजनिक रूप से पहली बार यह एलान कर दिया था कि नेहरू के साथ उनके वैचारिक मतभेदों की चाहे जितनी चर्चा होती रहे, यह स्पष्ट है कि "राजा जी या सरदार वल्लभ भाई नहीं बल्कि जवाहरलाल उनके उत्तराधिकारी होंगे"... और "मेरे न रहने के बाद वह मेरी ही भाषा बोलेंगे" (गांधी, कलेक्टेड वर्क्स खण्ड-७५, पृ. २२४)।


      गांधी का नेहरू के पक्ष में यह निर्णायक फैसला यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अपनी निरन्तर विकासमान बौद्धिक-वैचारिक और राजनीतिक यात्रा के दौरान गांधी यह समझ चुके थे कि पार्टी संगठन में प्रभावी और स्पष्ट बहुमत की तुलना में जनता के विभिन्न समूहों और स्तरों के बीच निर्विवाद लोकप्रियता और एक विविधतापूर्ण समाज में सबको साथ लेकर चल सकने का समुचित लचीलापन, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों और पेंचीदगियों को समझने की दूरदर्शिता और धार्मिक आधार पर विभाजन की त्रासदी झेल रहे एक नव स्वाधीन राज्य की सर्व समावेशी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को सम्हालने तथा एक बहुलतावादी समाज में मुख्तलिफ सामाजिक, क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और धार्मिक आकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाए रखने का कौशल ही नेतृत्व की कसौटी हो सकता था। गांधी अपने अहिंसक जनान्दोलनों और सत्याग्रह के हर पड़ाव पर यह देख और महसूस कर पा रहे थे कि उनके बाद अगर कोई दूसरा व्यक्ति सार्वदेशिक स्तर पर जनसामान्य के बीच लोकप्रिय और सम्मानित था वह जवाहर लाल नेहरू ही थे और गांधी को अपने वैचारिक आग्रहों और हठों की तुलना में नव स्वाधीन देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के भविष्य की ज्यादा चिंता थी।


    यही कारण है कि १९०९ में लिखी अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में प्रतिपादित पश्चिम की पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता और आधुनिक प्रौद्योगिकी के खिलाफ अपनी आवेगपूर्ण स्थापनाओं तथा हस्तचालित लघु उद्योगों पर आधारित विकेन्द्रीकृत ग्राम स्वराज के अपने प्रिय 'यूटोपिया' के प्रति नेहरू के उपेक्षापूर्ण रवैये के बावजूद गांधी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में जवाहर लाल नेहरू के चयन पर हमेशा संतोष और आश्वस्ति का भाव ही व्यक्त किया।


    राज सत्ता और अर्थसत्ता के पूरी तरह विकेन्द्रीकरण के प्रबल पैरोकार गांधी की ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भर कोई गुंजाइश नहीं है। यह अलग बात है कि इस सच्चाई को साबरमती आश्रम के वे जड़, मठी गांधीवादी नहीं समझ पाए जिन्होंने २००२ में गुजरात में अभूतपूर्व साम्प्रदायिक हिंसा के दौर में आश्रम में शरण लेने के लिए आए अल्पसंख्यक समुदाय के निरीह पुरुषों को ही नहीं बल्कि महिलाओं और बच्चों को भी शरण न देकर वहशी दरिन्दों के सामने जिबह होने के लिए छोड़ देने में तनिक भी शर्म महसूस नहीं की थी।


    लगातार बर्बर होते जाते समय में हिंसा की सहजता और निरन्तरता को किसी भी समाज द्वारा बिना किसी सक्रिय विरोध के स्वीकार कर लिया जाना उस तथाकथित सभ्य समाज के पतन का सूचक है। सार्वजनिक हिंसा तब और ज्यादा अमानवीय और अक्षम्य हो जाती है जब हिंसक समूहों, संगठनों या व्यक्तियों को राजसत्ता का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष संरक्षण उपलब्ध हो।


    क्या कोई सभ्य और शालीन होने का दावा करने वाला समाज एक लम्बी अवधि तक हिंसा की निरन्तरता को बर्दाश्त करने की नैतिक न सही शारीरिक सामर्थ्य भी रख सकता है? हर तरह की विविधता और बहुलता से सम्पन्न समाज में शांति और स्थायित्व की एकमात्र गारंटी उस समाज में अहिंसा को सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में आत्मसात किए जाने में ही है। गांधी के लिए अहिंसा सिर्फ रणनीति का हिस्सा नहीं बल्कि एक सुविचारिक उच्चतर जीवन मूल्य है।


    गांधी ने हर विचार, अवधारणा और कर्म को आलोचनात्मक नजरिए से ही देखा और परखा। प्रख्यात कन्नड़ उपन्यासकार और चिंतक यू.आर. अनन्तमूर्ति का सही ही मानना था कि गांधी भारतीय चिंतन परम्परा और सभ्यता विमर्श का अभिन्न अंग होते हुए भी उसके प्रति सजग आलोचनात्मक दृष्टि अपनाते है। यह आलोचनात्मक दृष्टि उन्हें पारम्परिक हिन्दू यानी सनातन धर्म की वैचारिक चौहद्दी के भीतर वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन करते हुए भी अस्पृश्यता को कलंक बताकर समूचे बहुसंख्यक हिन्दू समाज की अन्तरात्मा को झकझोरने और इसके लिए उसे अपराध बोध कराने में इस हद तक तो कामयाब बनाती ही है कि संविधान सभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए नौकरियों और राजनीतिक सत्ता में भागीदारी की प्रतिस्पर्धा में आरक्षण की व्यवस्था पर बहस के दौरान किसी भी तरह का मुखर विरोध नहीं हुआ। भारतीय संविधान में की गई आरक्षण की व्यवस्था दरअसल १९३२ के पूना समझौते के तहत गांधी द्वारा सम्पूर्ण सवर्ण हिन्दू समाज की ओर से बाबा साहब अम्बेडकर के साथ किए गए वायदे को संवैधानिक स्वरूप प्रदान कर अमली जामा पहनाना था।


    जितनी बड़ी संख्या में महिलाओं को चुल्हे चक्की की जकड़न से आजाद कर उन्हें घर की चौखट से बाहर निकलकर सार्वजनिक जीवन में मर्दो के साथ बराबरी के आधार पर हिस्सेदारी करने को गांधी ने प्रेरित किया उतना उस दौर के किसी भी अन्य आन्दोलनकारी ने नहीं किया था।


      सच तो यह है कि भारतीय समाज के हाशिए पर पड़े समूहों की मुक्ति और बेहतरी को देश की आजादी के महास्वप्न के साथ जोड़कर गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन के सामाजिक जनाधार को व्यापक विस्तार दिया।


      गांधी के १५०वीं जयंती वर्ष में यह याद किया जाना और याद दिलाया जाना जरूरी है कि गांधी एक बेहतर संगठनकर्ता होने के साथ ही सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता से भी सम्पन्न थे। उन्होंने अपने समय की विभिन्न सार्वजनिक शख्सियतों के साथ एक ठहरे हुए समाज को गतिशील बनाने और साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद करने की रणीनीतियों पर ही नहीं बल्कि भविष्य के स्वाधीन भारत में भाषाई, धार्मिक, इलाकाई, और एथनिक विविधता और बहुलता को बनाए रखने की अपरिहार्यता के बारे में भी महत्वपूर्ण वैचारिक संवाद किए थे।


      इस संदर्भ में राष्ट्रवाद और विश्वबन्धुत्व के बारे में रवीन्द्र नाथ टैगोर के साथ; हिन्दू धर्म की आन्तरिक गत्यात्मकता और हिन्दू धर्म के भीतर के विभिन्न मतों और पंथों तथा उनकी मुक्ति सम्बन्धी अवधारणाओं के उदार और संकीर्ण रूपों के बारे में कांची कामकोटि के तत्कालीन शंकराचार्य के साथ, अस्पृश्यों और वर्णाश्रम के सबसे निचले पायदान पर रखे गए शूद्रों को समाज की मुख्य धारा में गरिमा के साथ समाहित करने यानी सामाजिक न्याय के सवाल पर बाबा साहेब आम्बेडकर के साथ और हिंसा बनाम अहिंसा की अवधारणा तथा स्वाधीनता आंदोलन में जनता की व्यापकतम भागीदारी सुनिश्चित करने के जरूरी साधन के रूप में अहिंसा की अपरिहार्यता और द्वन्द्वात्मकता पर विनायक दामोदर सावरकर के साथ ही उस दौर के तमाम संतों, महन्तों, पीर मुर्शिदों और यथास्थिति के पोषक तत्वों के साथ गहन विचारोत्तेजक संवाद अत्यन्त तार्किक और विवेकपूर्ण ढंग से किए थे।


      अपनी वैचारिक दृढता और कई मायनों में अपने विचारों के प्रति एक किस्म के भावूक जिद्दीपन के बावजूद उन्होंने किसी तार्किक, विवेकसम्मत और जनसामान्य के लिए अनुकूल अवधारणा के पक्ष में अपने विचारों में फेरबदल करने में कभी संकोच नहीं किया। रवीन्द्र नाथ टैगोर और आम्बेडकर के साथ संवाद ने गांधी को संकीर्ण राष्ट्रवाद और वर्णाश्रम की जडता से बाहर निकलने में काफी मदद की।


      हर अवधारणा, स्थापना और मान्यता को संदेह, शंका और जिज्ञासा के साथ ही पारस्परिक आलोचना प्रत्यालोचना के भाव से निरन्तर विवेक की कसौटी पर कसते रहने का साहस गांधी और उनके निरन्तर विकासमान सामाजिक राजनीतिक विचारों को समझने की पूर्व शर्त है अन्यथा वही होगा जो आज हो रहा है।


      आज गांधी की अन्याय के विरूद्ध एक लम्बी संघर्ष यात्रा को स्वच्छता अभियान, पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना और रामराज्य तक सीमित कर दिया जा रहा है। हालांकि ऐसा करने वाले व्यवहार में गांधी की सत्ता और अर्थनीति के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा के बरक्स दोनों का ही असीम केन्द्रीकरण कर ग्राम स्वराज के विचार का ही माखौल तो उड़ा ही रहे है, वे भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों को संविधान प्रदत्त आर्थिक राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर जिस किस्म की सर्वशक्तिमान केन्द्रीय सत्ता का वर्चस्व स्थापित करने में लगे है, वह गुणात्मक रूप से अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक सत्ता प्रतिष्ठान का ही देशी संस्करण है।


      इतिहासकार सुधीर चन्द्र याद दिलाते है कि यह १५०वीं जयन्ती गांधी के नेतृत्व में चली अहमदाबाद मिल मजदूरों की कामयाब हड़ताल का शताब्दी वर्ष है और गांधी द्वारा किए गए सबसे पहले आमरण उपवास का भी शताब्दी वर्ष है। सुधीर चन्द्र के अनुसार अपने अंतिम दिनों में गांधी यह महसूस करने लगे थे कि आजादी की जिस लड़ाई को उन्होंने और समूची दुनिया ने अहिंसा का विलक्षण प्रयोग समझा था, वह दरअसल अहिंसक था ही नहीं। "वह एक निष्क्रिय प्रतिरोध मात्र था जो कि कायरों का अस्त्र होता है यानी एक मायने में हिंसा के लिए तैयारी। अंग्रेजों का खौफ खत्म होते ही लोगों के दिलों दिमाग में दबी हुई दमित हिंसा एक विस्फोट के रूप में सामने आ गई। हिंसा का यह विस्फोट गांधी के अहिंसा के महास्वप्न का बिखर जाना था"।


    मगर ऐसा महसूस करते हुए भी गांधी ने साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ अपने संघर्ष में किसी तरह की शिथिलता नहीं आने दी। नोआखाली, कलकत्ता, पटना और दिल्ली में विभाजन के तुरन्त पहले और विभाजन के बाद जिस बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिसा की आग भड़काई गई थी उसे बझाना ही नहीं बल्कि हिंसा से पीडित स्त्री-पुरुषों में हिंसा करने वालों के प्रति क्षमा और हिंसक-हत्यारे अराजक तत्वों में अपनी करतूतों के लिए प्रायश्चित की भावना पैदा करवाना सिर्फ और सिर्फ गांधी के ही बूते की बात थी।


    यह वह मुश्किल वक्त था जब हिन्दू-मुस्लिम और सिख समुदायों के बीच हिंसा, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध के दावानल को शांत करने में गांधी ने अपना सम्पूर्ण नैतिक बल दांव पर लगा दिया। उनके अहिंसक सत्याग्रह की सामर्थ्य और सम्भावना की असली पड़ताल तो साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनके संघर्ष में ही हुई। अपने अंतिम उपवास (१३ जनवरी १९४८) से गांधी ने एक दूसरे के खून के प्यासे साम्प्रदायिक और हिंसक लोगों की अन्तरात्मा को जगाने की प्रभावी कोशिश की थी जिसका अपेक्षित परिणाम रहा, सभी सम्प्रदायों के १०० के लगभग प्रतिनिधियों द्वारा साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने का वायदा करना और वह भी बाकायदा एक शांति संकल्प के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर।


    चम्पारण के किसानों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह से शुरू कर अहमदाबाद के मजदूरों की मांगों के समर्थन में संघर्ष और खिलाफत, असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो जैसे जनान्दोलनों का सफल नेतृत्व करने वाले आन्दोलनकारी गांधी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने के साथ ही दुनिया में शान्ति और सद्भावना की अलख जगाने वाले मसीहा की भूमिका में भी समची मानवता के लिए आज तक एक प्रेरक व्यक्तित्व बने हुए है।


    आज यानी १५०वीं जयन्ती वर्ष में गांधी सर्वसत्तावादी संरचनाओं को चुनौती देने वाले, सभी धर्मों को समान आदर देते हुए उनके बीच एकता के सूत्रों को परिभाषित करने वाले, मामूली आदमी की असाधारण क्षमताओं में भरोसा रखने वाले और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए प्राणों की भी बाजी लगा देने वाले एक ऐसे उदात्त नायक के रूप में याद किए जाने चाहिए जो शोषण और अन्याय के सभी रूपों के खिलाफ ताउम्र संघर्ष करता रहा और जिसने भाषाई, धार्मिक, इलाकाई और जातीय अलपसंख्यकों की सुरक्षा को किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के चरित्र को परखने की सबसे बड़ी कसौटी माना।


    बर्बर और हिंसक भीड़ के बीच मजलूमों के हक में निडरता के साथ खड़े हो सकने का नैतिक साहस रखने वाला अहिंसक सत्याग्रही गांधी ही आज के इस हिंसक समय में हमारा रोल माडल हो सकता है।


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