कविता - 'सागर' -डा0 बिभा रंजन

कविता - 'सागर' - डा0 बिभा रंजन


 


 'सागर'


 


             
कितनी मासूम होती हैं
ये मचलती लहरें!
कितनी गहराई है इनमें,
अंदर कितने तूफान समेटे,
अल्हड/नहीं जानती!
अभी कुछ ही पल में,
इनका अंत हो जायेगा!
जिस पल/ कोई एक लहर,
सागर में विलीन होने को होता है!
ठी़क/ उसी पल,
एक नया/लहर जन्म ले लेता है!

रहस्यमय सागर की मचलती लहरे,
इस तरह से/ उछल-उछल कर आती!
जैसे कोई /राज खोलने को हैं तैयार,
ये चंचल मचलती लहरे,
मन के भावों की तरह तो,
होती हैं /पल मे देखो!
सामने लक्षित होती,
और /पल मे विलीन हो जाती!
हृदय की तरह ही गहरे,
अर्तमन में कितने राज छुपाये,
उपर से हलचल मचाती,
अंदर से शांत/शायद नहीं,
लहरे शांत नहीं होती!
शोर मचाती,
ध्यान से देखो!

कभी ये/ फ़लक से मिलती दिखती!
कभी किनारों को छुती,
इठ़लाती लौट जाती,
फिर/ दे जाती ढ़ेर सारा रेत,
कोई पागल कवि जिस पर
कुछ लिख कर चल देता,
बच्चे रेत पर घर बनाते,
पर /ये आती-जाती लहरे,
कोई  निशां नहीं रहने देती
उसे मिटा डा़लती!
इनका अतं नहीं होता!
जैसे मानव के दर्द का,
कभी अंत नहीं होता!
इसी तरह ही/ इन लहरोंं  का भी
कभी अंत नहीं होता!

    स्वरचित डॉ विभा रजंन (कनक )
         

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