कविता - रुपेश धनगर पचावर
रिश्तो में जब खिची कोई एक लकीर
देख न पाया पुत्र भी बूढ़ी माँ की पीर
समरथ से हिलमिल करे बेगाने भी प्यार
गम भूले मजबूर के अपने रिश्तेदार
धनवानों के नाम है भोंगो के अम्बार
निर्धन इस जग में रहा रोटी को लाचार
घृणा बसी जिनके हिये बसे ईर्ष्या द्वेष
वे सब निरे पिशाच है नर नारी के बेष
ताकतबर के खूब है तारीफों के शोर
निर्बल के मत्थे मढे आरोपों के जोर
दरवारो ने कब सुनी लाचारों की चीख
गुप्तदान मठ को मिले भूखे मिली न भीख
घर घर सबके बन रहे हलुआ पूड़ी खीर
निर्धन के हिय में बसी लाचारी की पीर
रंग विषम भाषा विषम,विषम विविध परिधान
विषम विविधता एकता भारत की पहिचान
आहट से बरषात की नाचे दादुर मोर
एक आहट धडकत जिया दूजे भागे चोर
शरद ऋतु में गाँव की लगे सुहानी भोर
हरी घास शवनम गिरी मतवाली चहुओर
शवनम धवल सुहावनी पीली सरसो क्यार
जैसे चुनरी धारकर किये प्रकृति श्रृंगार
रुपेश धनगर पचावर मथुरा ब्रजभूमि काव्य मंच मथुरा . उत्तर प्रदेश
मो -9410490520