कविता - बर्फ- अनिता रश्मि
बर्फ
कितना आन्नद, कितनी खुशी
स्नो फाॅल देखने,
देखते चले जाने में
रुई के फाहों से गिरते
बर्फ में झूमने, गोले हिम के
एक - दूसरे पर उछाल
खुद उछल जाने में
कितना- कितना तो है कठिन
हर पल उसे सीने पर लादे
तुषार धवल धरा पर
सोने, सो जाने में
चिनार, देवदार की ऊँचाई को
बर्फीली हवा के थपेड़े खाने
उससे लिपट - लिपट
अपना वज़ूद पूरा का पूरा
गँवा देने, बिखर जाने में
' औ '
कितना अधिक दर्द है
गल गए हाथ-पैरों के साथ
जीने, जीते चले जाने में
तुषार, हिम या बर्फ को
पिघला - पिघला कर
अपनी, बच्चों, मवेशियों की
अमिट प्यास बुझाने में
जीवन को घूँट -घूँट पीने में
मर जाने में
क्या कभी समझ पाएँगे
हम मैदान वाले?
कितना दर्द है...!
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