सम्पादकीय - गाँधी : एक ठेठ हिन्दुस्तानी जिद्द - प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार

सामपादकीय  - गाँधी : एक ठेठ हिन्दुस्तानी जिद्द  - प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार 


                                                                  --------------------------


 


          इस वर्ष दो अक्तूबर को गाँधी की १५०वीं जयंती है। अपनी प्रार्थना सभाओं में गाँधी अक्सर कहा करते थे-'मैं एक शौ पचीश शाल जिऊंगा।' इस आत्मविश्वास के पीछे यह संकल्प था कि उन्हें जो काम करने हैं, उनके लिए एक बड़ा जीवन चाहिए।


          आज़ादी मिली बँटवारे के साथ। गाँधी बंटवारा नहीं चाहते थे। तब गाँधी को निराशा घेरने लगी। उनको जीने की सार्थकता में संदेह होने लगातब वे भरे मन से कहते- 'अब मैं और नहीं जीना चाहता।' अपनी जन्मतिथि २ अक्तूबर १९४७ की प्रार्थना सभा में गाँधी ने क्या कहा था, सुनिए- 'आज मेरी जन्मतिथि है। ... ... ... मेरे लिए तो आज यह मातम मनाने का दिन है। मैं आज तक जिंदा पड़ा हूँ। इस पर मुझको खुद आश्चर्य होता है। शर्म लगती है। मैं वही शख्स हूँ कि जिसकी ज़बान से एक चीज़ निकलती थी कि ऐसा करो तो करोड़ों लोग उसको मानते थे? पर आज तो मेरी कोई सुनता ही नहीं है।'


        और तब आई ३० जनवरी १९४८ की शाम। तीन गोलियाँ, धाँय-धाँय-धाँय'एक शौ पच्चीश शाल जीने की कामना' अस्सी साल में, डेढ़ पसली वाले सीने के भीतर दफ़्न कर दी गई।


      और अब गाँधी १५० साल के होने जा रहे हैं। इस १५० साल के वक्फे में क्या हम गाँधी को समय के किसी स्थिर चौखटे में जड़कर देख सकते हैं? नहीं! गाँधी एक गतिमान विचार की तरह लोगों की निगाह में निरंतर बदलते जा रहे हैं। यह उनके जिंदा होने का सबूत है। उनकी संभावनाएँ ही नहीं, उनकी सीमाएँ भी स्पष्ट होती जा रही हैं। उनके प्रशंसक भी बदलते जा रहे हैं, उनके आलोचक भी।


    मुझे हैरत होती है, आइंस्टाईन ने यह कैसे कह दिया होगा- 'आने वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं करेंगी, इस धरती पर गाँधी जैसा कोई हाड़ मास का इंसान रहा होगा!' ऐसा मानने वालों से निवेदन है कि वे गाँधी को चमत्कारी पुरुष न बनाए। वह सिर से पैर तक, भीतर से बाहर तक हाड़-मास का इंसान ही था। इस रूप में हम उनको याद करेंगे तो वह हमें ज्यादा अपने लगेंगे। हम उनसे ज्यादा सीख सकेंगे। सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों रूपों में।


    यह अलबत्ता शर्मनाक है कि इधर गाँधी की १५०वीं जयंती मनाने की सरकारी घोषणा हो रही थी और उधर २०१९ के चुनाव की ऐसी तैयारी थी, जिसमें गोडसे को शहीद का दर्जा दिलाकर चुनाव जीता जा सके। जनता के बारे में हमारा विश्वास है कि वह इतिहास-निर्मात्री शक्ति होती है। लेकिन विडंबना देखिए कि कैसी जनता बना दी गई है कि साध्वी प्रज्ञा गोडसे की शहादत के नाम पर चुनाव जीत गईं!


    गाँधी के रास्ते से अलग चलने वाले स्वतंत्रता सेनानी भी गाँधी का बहुत सम्मान करते थे। सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था। गाँधी के १५०वें वर्ष पर टुच्चेपन की हद देखिए, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'राष्ट्रपिता' के ख़िताब से नवाज़ने में गौरव की अनुभूति कर रहे हैं। और हमारे प्रधानमंत्री कैसी बेशर्मी से ट्रंप से हाथ मिलाते हुए धन्य हो रहे हैं। है कोई, जो इस धन्यता को धिक्कारे?


    वैसे बताता चलूँ, मैं गाँधीवादी नहीं हूँ। गाँधी-भक्त तो क़तई नहीं। यह जानते हुए भी 'सृजन सरोकार' के संस्थापक सम्पादक श्री गोपाल रंजन ने मुझे इस विशेषांक के संपादन का दायित्व सौंपा, तो मुझे संतोष ही हुआ। गाँधी मुझे प्रेरित करते हैं। सीखने के लिए उनसे बहुत है, हम सबके लिए। गाँधी की मूर्तियाँ बहुत बनवाई जा चुकीं, लेकिन हाड़-माँस के आदमी के रूप में वे हमारी चेतना में हैं या नहीं, रहेंगे या नहीं- असल प्रथ इस तथ्य की छानबीन का है। इस अंक में इसी छानबीन की विनम्र और अनद्धत कोशिश की गई है।


    इस विशेषांक की तैयारी के लिए मेरे पास समय बहुत कम था। उसपर एकायक अस्वस्थ हो जाना। मुझे अपनी अस्वस्थता से ज्यादा चिंता इस बात की थी कि कहीं विशेषांक का संपादन अधूरा " न रह जाए। लेकिन फिर, चेतना गाँधी का रहना ही काम आया। इंसानी कोशिशों के हर अधूरेपन के विरूद्ध सतत संघर्ष का नाम ही तो गाँधी है। हालांकि अधूरेपन से पूर्ण निजात कहाँ संभव है ? संघर्ष के साथ सतत विशेषण की सार्थकता भी तो इसी में है।


    गाँधी के प्रार्थना-प्रवचनों का जो संकलन आया है, उसमें मुझे १५ अगस्त से कुछ पहले और कुछ बाद के दिनों का कोई प्रवचन देखने को नहीं मिला। वे दिन थे ही इतने उथल-पुथल के, उन्माद के कि गाँधी को शायद प्रार्थना-सभा का मौका ही न मिला हो। पर गाँधी की प्रार्थनाएँ उनके मन में तो अनवरत चलती रहती थीं। दिल्ली आज़ादी के लिए सज रही थी। पर गाँधी का मन कहीं और था। वे कलकत्ते में थे, जहाँ हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। बहरहाल गाँधी वहाँ गए। गाँधी की इंसान-दोस्ती के जज्बे में इतना दम था कि कलकत्ते में उनके होने का असर पड़ा। माउंट बैटन को भी 'गाँधी होने' का अर्थ समझ में आ गया- ८० हज़ार की फौज़ जो काम नहीं कर सकी, वह अस्सी बरस के एक अकेले आदमी ने कर दिखाया - 'One Man Army'।


    आजादी के जश्र के दिन में गाँधी का दिल्ली में न होनाक्या इसके कुछ और भी निहितार्थ हो सकते हैं? शायद गाँधी के मन में भी यह शंका रही हो- यह आज़ादी उस स्वराज का पर्याय कैसे हो सकती है, जिसे वे 'हिंद-स्वराज' कहते थे! एक तरह से देखें तो, साधनों के हिंसात्मक-अहिंसात्मक स्वरूप से ऊपर उठकर, गाँधी के मन में भी आज़ादी को लेकर वहीं संदेह उठ रहे होंगे जो भगत सिंह और प्रेमचंद और बाद में फ़ैज़ अहमद फैज़ के मन में उठते देखे जाते हैं।


    कुछ ऐसे भी संदेह-जाग्रत विश्लेषक हैं, जिन्हें हम अक्सर यह कहते सुनते हैं कि गाँधी पूंजीपतियों के दलाल थे। पूँजीवाद है क्या? – 'अतिरिक्त संचय'! गाँधी तो निरंतर अतिरिक्त' को छोड़ते गए। देह पर न अतिरिक्त चर्बी, न अतिरिक्त कपड़े। निर्मल वर्मा ने ठीक ही कहा है गांधी को - दुनिया में सबसे कम जगह घेरने वाला आदमी! जगह घेरी, तो दिलों और दिमागों में। वे ठेठ भारतीय आदमी के साथ तादात्म्य स्थापित करते गए। उनकी नज़र में, भारत में किसी भी तरह के विकास की सार्थकता का पैमाना यह था कि सबसे नीचे पायदान पर खड़े आदमी को उसका लाभ मिल पाता है या नहीं।


    सच पूछिए तो गाँधी विचार से ज्यादा 'आचार' का नाम है। 'आचार' माने आचरण! आज़ादी के बाद गाँधी के नाम का इस्तेमाल वोट की राजनीति और सत्ता के लिए प्रायः हर सियासी पार्टी ने किया। आज भी किया जा रहा है। लेकिन, गाँधी की ताकत का जो सबसे बड़ा आधार था- उनका आचरण, उसे किसी ने अपने विचार और जीवन का आधार नहीं बनाना चाहा।


    यह भी कहा जाता है कि गाँधी अपनी ज़िद में दुराग्रही हो उठते थे। मसलन कांग्रेस के अधिवेशन में चुनाव के मौकों पर। जैसे सुभाष बाबू को जब कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया तो गाँधी पट्टाभि सीतारमैया के पक्ष में जिद पर अड़े थे। गोडसे ने गाँधी की हत्या के पक्ष पर जब अपनी दलील दी थी, उसमें भी यही कहा था- गाँधी जब देखो, जिद पर अड़ जाते हैं और उनका प्रभाव कुछ ऐसा है कि अपनी बात मनवा लेते हैं, जो राष्ट्र-हित में नहीं होती है। इन बातों पर निश्चय ही विमर्श का लोकतांत्रिक अधिकार किसी से छीना नहीं जा सकता। लेकिन, मेरे ख्याल से 'गाँधी' नाम ही है एक ठेठ हिंदुस्तानी ज़िद का। ऐसी ठेठ हिंदुस्तानी ज़िद-जिसके लिए सबसे सार्थक नाम भी स्वयं गाँधी ने ही दिया- 'सत्याग्रह'। 'सत्याग्रह' ही उनका 'अत्याग्रह' था।


    गाँधी के लिए 'सत्य' कोई अंतिमता के दावे की चीज़ नहीं है। सत्य उनके लिए प्रयोग का विषय था। अपने-अपने अनभव और विवेक की प्रयोगशाला में स्वयं परखने की चीज। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम भी इसीलिए रखासत्य के साथ मेरे प्रयोग।'


    आज दुनियाभर में सत्य से ज्यादा झूठ के साथ प्रयोग किए जा रहे हैं। राजनीति भी खुद झूठ के साथ प्रयोग बनकर रह गई है।


    गाँधी के बारे में एक मान्यता यह भी है कि वे राजनीतिक नहीं, बुनियादी तौर पर धार्मिक आस्थाओं वाले व्यक्ति थे। लेकिन उनकी आस्था तर्क का तिरस्कार नहीं करती। उन्होंने अपनी धार्मिकता की तार्किक व्याख्या यों की थी- 'मैं हिंदू भी हूँ, मुसलमान भी हूँ, सिख भी, ईसाई भी।' सेकुलर, सेकुलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता जैसे पदों का उन्होंने कहीं इस्तेमाल किया या नहीं, यह खोजबीन का विषय है। धर्मनिरपेक्षता जैसा शब्द शायद ही उनकी पसंद का होता। लेकिन उनकी धार्मिकता का सेकुलर रूप शायद उनका यही वाक्य था- 'मैं हिंदू भी हूँ, मुसलमान भी, सिख भी, ईसाई भी।'


    उन्होंने जिस 'रामधुन' को जीवन की लय बनाया, वह भी सिर्फ 'हिंदू' नहीं थी। 'ईश्वर अललाह एकै नाम/सबको सनमति दे भगवान ... ...' यह उनकी रामधुन की लौकिक टेक भी थी, आध्यात्मिक भी। एक बात और गौर करने की है। उन्होंने जो भी आंदोलन चलाए, उनके केन्द्र में लौकिक रूप में उपयोगी और श्रम से जुड़ी चीजों को रखा। मसलन चरखा और खादी। तिलक ने गणेशोत्सव शुरू किया था- जो एक हिंदू रूपक था, लोगों को राष्ट्रीय भावना से एकजुट करने का। इसके बरक्श गाँधी ने 'चरखा' और 'खादी' और 'नमक' जैसी आम भारतीय जीवन की ठेठ उपयोगी और लौकिक वस्तुओं के ज़रिए अपने राष्ट्रीय आंदोलन को जमीनी आधार पर गतिमान करने में सूझ-बूझ से काम लिया। वे जानते थे, हिंदुस्तान के लोकजीवन में मूर्तता अधिक रचीबसी है। इसलिए वे किसी भी अभियान में अमूर्तता की ओर नहीं जाते थे। विचारों की अमूर्तता में भी नहीं। उन्होंने समझ लिया था कि विचार की सार्थकता भी इसी में है कि वह आचरण में मूर्त होता दिखे।


    यहाँ ज़ोर इस बात पर नहीं देना है कि गाँधी को संदेहों से सर्वथा परे मान लिया जाए। बल्कि, दुनिया में किसी भी शख्स की महानता का प्रमाण इससे भी मिलता है कि वह अपने समय और आगे आने वाली पीढ़ियों के समय में खुद पर संदेह किए जाने का कितना अधिकार देता है। गाँधी अधिकार देते हैं। इस अधिकार का सदुपयोग हम कर सकें, यह अच्छा है। बशर्ते परिप्रेक्ष्य सही और निर्भावुक हों, दृष्टिकोण वस्तुपरक।


    गाँधी अपने को तटस्थ और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का कितना खुला, कितना आलोचनात्मक अधिकार देते हैं-यह देखना हो तो मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'अंधेरे में' में गाँधी की उपस्थिति को देखना शायद सबसे ज्यादा संगत होगा।


    इस अंक में संयोजन में हमने समस्त आमंत्रित सामग्री को पाँच खंडों (समय-संदर्भ, समय-संवाद, समय-संवेध, समय-आवर्त, समय विमर्श) के अंतर्गत व्यवस्थित किया है। प्रबुद्ध पाठकों को स्वयं ही इन खंडों की सार्थकता नजर आ जाएगी। अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मुझे संतोष है कि हमारे अग्रजों, समयवर्तियों और युवा साथियों से जिन-जिन विषयों पर हमने लेख आमंत्रित किए सबने यथासमय हमें सामग्री उपलब्ध करा दी। मैं सबके प्रति कृतज्ञ हूँ। अपने युवा साथियों पर आभार का भार क्यों लादूँ? सबके उत्साह के प्रति शुभकामनाएं।


    ___ कामना यह भी थी कि बापू के साथ पर स्वतंत्र लेख बा पर भी रहे। हरिलाल के माता-पिता के रूप में और बापू के बारे में भी निश्चित ही पाठक जिज्ञासु होंगे। हमने गिरिराज किशोर जी से इस संदर्भ में बात भी की थी। पर वे अत्यंत व्यस्त थे और इधर मैं अस्वस्थ। मन की मन में ही रह गई।


      पाठकों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।