'समय-सन्दर्भ - हिन्दुस्तानियत में कश्मीरियत और इन्सानियत का गाँधीनामा - कनक तिवारी

कनक तिवारी - प्रसिद्ध गाँधीवादी चिंतक, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता, गाँधी से संबंधित कई पुस्तकें प्रकाशित, मुक्तिबोध के सान्निध्य का सौभाग्य मिला।


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        महात्मा गांधी को देश की हर छोटी बड़ी समस्या से गहरा सरोकार रहा है। इसकी आंतरिक जांच करने में सबसे प्रामाणिक दस्तावेजी सबूत खुद गांधी मुहैया कराते हैं। उन्होंने हर छोटी बड़ी घटना को लेख, पत्र, डायरी, इंटरव्यू, भाषणों और प्रार्थना सभाओं में अभिव्यक्त किया है। गांधी की हत्या के कई प्रचारित कारणों में एक यह भी बताया जाता है कि भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान को ५५ करोड़ रुपयों का भुगतान करने का वायदा गांधी अपनी व्यग्रता में पूरा कराए जाने के आग्रही थे। यह कथित पक्षपात उनकी हत्या करने के हिन्दुत्व के पैरोकारों को नागवार गुजरा था। देश और कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होने की हैसियत में ही नहीं इतिहास को भी अपनी नजर से रेखांकित, व्याख्यायित और प्रभावित करते गांधी समस्याओं को बहुविध आयामों में समेटते हैं। अचरज होता है, इतनी पैनी और दूरदर्शी नज़र अन्यों की क्यों नहीं हो सकी ।


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    ५ अगस्त १९४७ को वाह की प्रार्थना सभा में गांधी ने तीन दिनों की अपनी इकलौती कश्मीर यात्रा का ब्यौरा दिया। बेगम शेख अब्दुल्ला पूरे समय उनके साथ रही थीं। उन्होंने महाराजा हरिसिंह और महारानी जम्मू-कश्मीर सहित, प्रधानमंत्री रामचंद्र काक से विचार विमर्श किया। गांधी शेख अब्दुल्ला से नहीं मिल पाए। उन्होंने दो दिन कश्मीर और एक दिन जम्मू में प्रार्थना सभाएं लेकर हजारों लोगों से गुफ्तगू की। उम्मीद जताई कि १५ अगस्त १९४७ को जम्मू-कश्मीर राज्य आजाद होकर सामंतशाही के अधीन नहीं रहेगा। उसे भारत या पाकिस्तान में मिलना होगाउनके अनुसार मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में शेख अब्दुल्ला स्थानिकता या हमवतनी की देशभक्ति की अलख जगाने की कोशिश अलबत्ता कर रहे हैं। अलग-अलग मजहबों के लोगों को भी भाषा और संस्कृति के लिहाज से गांधी ने कश्मीरियों में एका पाया। उनसे मिलने वाले शिष्टमंडल भी धार्मिकता की नस्लों की केंचुल में नहीं आते थे।


    गांधी ने कहा- जम्मू कश्मीर के लोगों की इच्छा ही उनके भविष्य निर्धारण के लिए सर्वोपरि होगी। इस बात से महाराजा हरिसिंह ने भी इत्तफाक किया। अमृतसर संधि के अनुसार कश्मीर को महाराजा गुलाबसिंह ने खरीदा था। गांधी ने अपनी कश्मीर यात्रा में इशारा किया कि वह बैनामा १५ अगस्त को कानूनी वैधता खो देगा। गांधी ने कहाकानूनी पचड़े में पड़े बगैर जम्मू कश्मीर के लोगों के विवेक पर निर्भर रहना समस्या का बेहतर हल होगा। इसमें देर भी नहीं होनी चाहिए। यह काम हरिसिंह, कश्मीरियों, भारत और पाकिस्तान के त्रिपक्षीय सलाह मशविरे से हो सकता है। गांधी के सामने करीब ९००० शरणार्थियों के व्यवस्थापन की समस्या का उल्लेख आया। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान सभी नेताओं पर शरणार्थी समस्या को लेकर दोनों पक्षों द्वारा दिए गए आश्वासनों को अमल में लाने की अपील की।


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    गांधी ने शेख अब्दुल्ला का जिक्र करते स्वीकारा कि उन्हें शेरे कश्मीर कहा जाता है। कश्मीर मुस्लिम बहुसंख्यक है और शेख अब्दल्ला उनके नेता तो हैं। गांधी ने भारत सरकार द्वारा कश्मीर को दी जा रही सैनिक सहायता और संरक्षण के बारे में भी खुद को बाखबर होना बताया। शेख अब्दुल्ला के कथन से इत्तफाक किया कि कश्मीर कश्मीरियों का है, महाराजा का नहीं। महाराजा ने परिस्थितियों के चलते सभी अधिकार शेख अब्दल्ला को सौंप दिए थे। गांधी ने इशारा किया, शेख विवेक के अनुसार परिस्थितियों का निर्धारण करें। कश्मीर केवल महाराजा के द्वारा बचाया नहीं जा सकता। गांधी ने कहा था, कश्मीर को वहां के मुसलमान, कश्मीरी पंडित, राजपूत और सिक्ख मिलकर बचा सकते हैं। इन सबसे शेख की अंतरंगता है। गांधी ने आशंका व्यक्त की कि ऐसा करने में शेख अब्दुल्ला के परिवार को खतरा भी हो सकता है। यदि दुर्भाग्य से ऐसा हुआ, तब भी वह आंसू बहाने वाली घटना नहीं होगी। उन्होंने उम्मीद जताई कि शायद कबाइली आतंक के पीछे पाकिस्तान का हाथ नहीं होगा।


    यह बापू का खुद की पवित्र आत्मा को आश्वस्त करने का नैतिक हलफनामा था। सच्चाई यह है कि आक्रमण के पीछे पाकिस्तान का ही प्रयोजन रहा था। शेख अब्दुल्ला के बहुआयामी व्यक्तित्व को गांधी ने रेखांकित किया कि निष्णात मुस्लिम होने के बावजूद शेख का परिवार बहुधर्मी कश्मीरियों का सबसे प्रामाणिक प्रतिनिधि है। कश्मीर में हिन्दू और सिक्ख अल्पसंख्यक भी अपनी कश्मीरियत की ताब और पहचान रखते हैं। गांधी के मुताबिक सभी हिन्दू और सिक्ख भी साधु स्वभाव के ही नहीं हैं। वे महज नामालूम इंसान और काफिर भी नहीं ही कहे जा सकते। अच्छे और बरे दोनों तरह के लोग हर कौम और मजहब में हैं।


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    ____ नई दिल्ली की १ नवम्बर १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधी ने अपनी कश्मीर चिंता का उल्था करने की कोशिश की। कहा- एक तरफ हिन्दुस्तान आजादी मिलने के बाद जम्हूरियत को लागू करने की जद्दोजहद से जूझ रहा है, दूसरी ओर कश्मीर समस्या सबसे बड़ा सिरदर्द बनकर आज भी हिन्दुस्तान के जेहन को कुरेद रही है। कश्मीर में युद्ध ही तो चल ही रहा है। उसकी सबको फिक्र करनी होगी। राजनीतिक भाष्य करते गांधी ने दुहराया, कश्मीर शेख अब्दुल्ला के हाथों में है। वहां शांति स्थापित हो गई बताई जाती है। भरोसा है कि शेख सेक्युलर हैं और अंग्रेजों तक से उनकी दोस्ती पर संदेह नहीं है। महाराजा केवल नामधारी हुकूमतदार हैं। महाराजा ने खुद गांधी को बताया कि वे वही करेंगे जो शेख चाहेंगे।


      गांधी तरह-तरह के संकेत सूत्र बिखेरते हैं। उनका राष्ट्रीय आशय यही है कि कश्मीर के लोगों और उनके प्रतिनिधि शेख अब्दुल्ला की राय को ही भारत में शामिल होने के लिए तरजीह दी जानी चाहिए। गांधी की महाराजा हरिसिंह और सामंतवादी हुकूमत के संवैधानिक प्रतिनिधित्व की अवधारणाओं को लेकर वितृष्णा बार-बार नज़र आती हैइसके बरक्स इतिहास में लेकिन संवैधानिकता का तार्किक मुलम्मा चढ़ाते समानांतर प्रक्रिया में संविधान सभा महाराजा हरिसिंह द्वारा तहरीर किए गए अधिमिलन विलेख और उससे संलग्न सभी पत्राचार और वायदों को कश्मीर के भारत में विलय और संवैधानिक भविष्यमूलक रिश्तों को वचनबद्धता के साथ स्वीकार करती रहती है।


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    गांधी ने पाकिस्तान को अपनी सयानी सलाह कूटनीतिक भाषा में संकेतित की। पाकिस्तान दुनिया में सबसे बड़ी इस्लामिक ताकत बनना चाहता है, तो उसे हिन्दुओं और सिक्खों से बराबरी का सलूक करके दिखाना होगा जबकि पाकिस्तान ऐसा नहीं है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत हो। शेख अब्दुल्ला को जरूर शामिल किया जाएमध्यस्थ नियुक्त होना है तो ये पक्ष ही आपस में ही तय करेंकिसी बाहरी ताकत को लाने का सवाल कतई नहीं है। ये तीनों पक्ष चाहें तो महाराजा को पदत्याग करने का दबाव भी डालें। महाराजा को खुद ऐलान करना चाहिए कि अब वे राजा नहीं रहेदरअसल कश्मीर के मुसलमान ही वास्तविक राजा हैं। ऐसी हालत में शेख अब्दुल्ला अपनी आंतरिक सरकार स्थापित कर कानून के राज्य की शुरुआत करें। भारत ने न तो कश्मीर पर हमला किया है न ही उसने महाराजा की मदद की है। यहां गांधी राजनीतिक तर्क की चतुर व्यूहरचना करते हुए कहते हैं कि कश्मीर पर हमला होने पर भारत ने सेना भेजी। वह तो कश्मीर की जनता की रक्षा के लिए थी। इतिहास में यह तर्क संविधान के पंडित राजनीति की सूझबूझ के साथ लेकिन तर्कसिद्ध नहीं करते हैं। भारतपाकिस्तान और बर्तानवी हुकूमत के सभी प्रतिनिधि कश्मीर में भारत के विलय के संदर्भ में कश्मीर के महाराजा द्वारा निष्पादित अधिमिलन विलेख को रिश्तों की बनियाद कहते हैं। जबकि गांधी बार-बार अपनी जनतांत्रिक प्रतिबद्धता के चलते कश्मीर की मुस्लिम बहुल जनसंख्या को हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध हमवतनों के विश्वास के आवरण में लपेटकर एक नई सैद्धांतिकी गढ़ने की सायास कोशिश करते हैं।


     


 


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      दिलचस्प लेकिन गंभीर दृष्टि से विचारोत्तेजक है कि गांधी ने अहिंसा के अपने मौलिक सिद्धांत की जम्मू कश्मीर की घटनाओं के तेवर के संबंध में उदार, लचीली और अनोखी व्याख्या की। यह तर्क जम्मू कश्मीर की जनता की आजादी की लड़ाई को समझने वाले अमूमन सही संदर्भो में जज़्ब करना भूल जाते हैं। ५ नवम्बर १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधी ने साफ कहा कि मैं जानता हूं, अहिंसा का मेरा सिद्धांत बहुत कारगर और व्यवहार में लाने वाला लोगों को समझ नहीं आता। मैं अहिंसा के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित हूं। आश्रम में प्रार्थना सभाओं में आने वाले लोग अहिंसा में दिलचस्पी और जिज्ञासा के कारण भी आते हैं, यह भी हो सकता है। उन्होंने कहा- मैंने इस सिलसिले में हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल और जापान के लोगों को लगातार सूचित भी किया है। मैं वही बात भारत सरकार के लिए भी कहना चाहता हूं।


    कश्मीर में शेख अब्दुल्ला बहुत जांबाजी से संघर्ष कर रहे हैं। मैंने बहादुरी की सदैव तारीफ की है। ये सच है कि वे हिंसा में विश्वास करते हैं लेकिन उसके लिए भी साहस ही जरूरी है और मैं उसकी प्रशंसा करता हूं। मैं यहां तक कि सुभाष बाबू की प्रशंसा करता हूं। इसलिए नहीं कि मैं उनकी हिंसा का समर्थन करता हूं बल्कि इसलिए कि उनकी तरह मैं आजाद हिन्द फौज की स्थापना नहीं कर सकता था। मैं जब भी कुछ अच्छा देखता हूं और उसे श्रेय देने में चूक जाता हूं तो मैं सच्चा अहिंसक नहीं हो सकता। मुझे शक नहीं है कि यदि शेख अब्दुल्ला अंजाम तक अपनी लड़ाई जारी रखते हैं और  अपने साथ हिन्दुओं और सिक्खों को भी एक रखते हैं तो वह कश्मीर के लोगों के लिए बहुत परिणामकारी असर होगा।


    उन्होंने कहा “आज सब ओर जहर फैल गया है और लोग एक दूसरे को बनैले जानवरों की तरह मार रहे हैं। ऐसी सूरत में मैं खुद इस काबिल अपने को महसूस नहीं करता कि लोगों को अहिंसा का पाठ पढाऊं। अपने समय में चर्चिल भी नहीं कह सकते थे लेकिन आज शेख अब्दुल्ला और सेना जो वहां गई है, मुझे कह सकते हैं कि मेरी अहिंसा दिल्ली में नाकाबिल हो गई है जहां खुरेजी की जा रही है और भले ही समझें कि खूरेजी नहीं है। मुझे मंजूर करना चाहिए कि उन्हें ऐसा कहने का हक है। लेकिन वे ऐसा तब नहीं कह सकतेजब मैं सभी हिन्दुओं, मुसलमानों और भारत के सिक्खों कोअपनी अहिंसा के बारे में भरोसामंद कर दूं। उस सूरत में मैं खुद एक अहिंसक सेना लेकर कश्मीर या पाकिस्तान या किसी दूसरी जगह जा सकता हूं और तब मेरा काम और भी आसान हो जाएगा।"


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    २५ दिसम्बर १९४७ की प्रार्थना सभा में गांधी ने फिर कश्मीर राग छेड़ा। श्रोताओं से सवाल किया- अखबारों में छप रहा है कि भारत को सलाह दी जाए कि कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच . मध्यस्थ ढूंढे। ऐसे सुझाव को * गांधी ने पहली नजर में खारिज करते कहा, मामला सुलझने उठे के बदले एक तीसरा पक्ष इसमें उलझ जाएगा। यह मुद्दा भारतपाकिस्तान को ही द्विपक्षीय वार्ता के जरिए हल करना चाहिए। ९५ प्रतिशत मुस्लिम भी कश्मीर में हैं तो भी जम्मू-कश्मीर का भारत-पाक के बीच विभाजन नहीं हो सकता। विभाजन नासूर है। अगर उसका सिलसिला शुरू हो गया तो बीमारी सभी राज्यों में फैलेगी। गांधी ने पूछा, कश्मीर को लेकर तर्क यह भी दिया जाता है कि बाहरी लोगों ने आकर उस पर कब्जा किया है। एक उर्दू अखबार 'जमींदार' में छपी खबर का उल्लेख करते गांधी ने कहा- मुसलमानों को उकसाया जा रहा है कि कश्मीर पर हमला कर कब्जा करें। उसी अखबार ने डोगरा और सिक्ख लोगों के खिलाफ जहर भी उगला है। ऐसे लोग जिहाद बोलने के लिए मुसलमानों को ललकार रहे हैं। गांधी ने कहा- जमीनी हकीकत में लेकिन लोग ऐसा नहीं कर रहे हैं। इस तरह उकसाए जाने का कोई अर्थ नहीं है। गांधी कश्मीर के महाराजा के प्रति सहानुभूति भी रखते थे। उन्होंने यह माना कि महाराजा ने जम्मू जाकर हिन्दुओं और सिक्खों को समझाकर सभी की जान बचाने की कोशिश की तो है।


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    नई दिल्ली में २९ दिसम्बर १९४७ की प्रार्थनासभा में गांधी ने नए तर्क गढ़े और तल्ख जुबान में चल रहे विवादों, निन्दा तथा चुगलखोरी की अफवाहों को 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' के जुमले में विन्यस्त किया। महात्मा की यही तासीर, तेवर और तर्कबुद्धि उन्हें इतिहास के आले में किसी कद्दावर काठी की प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थापित किए हुए है। यही गांधी होने का राज है जो औरों के नसीब में नहीं है। उन्होंने कहा-मैं वाफिफ हूं कि कश्मीर और महाराजा को लेकर जो कुछ मैंने कहा है, उसकी निन्दा हो रही है। मेरे आलोचकों ने मुझे ठीक से पढ़ा या सुना नहीं है। इतिहास में ऐसे मौके आते हैं जब हमें पूरे अदब के साथ अपने आत्मपरीक्षित विश्वासों को जगजाहिर करना पड़ता है। मैंने वही किया है। महाराजा ने मेरी सलाह पर अमल किया होता तो वे न खुद केवल अपनी निगाह में ऊंचे उठे होते, दुनिया में भी ऊंची नजर से देखे जाते। आज कश्मीर और उनकी दुर्दशा है। उसकी बात की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। गांधी ने कहा-जिहादिए कहते हैं कश्मीर के मुसलमान . एक हिन्दू राजा का जुल्म सहने पर मजबूर हैं। इसलिए जिहाद करना ही पड़ेगा


    भारत के राजनीतिक मठाधीशों में किसी ने गांधी के समानांतर १५ अगस्त १९४७ के बाद महाराजा को राजपाट छोड़कर जनता को सौंपने की सलाह नहीं दी होगी। कैसी जनतांत्रिकता है कि गांधी के अनुसार ठीक १५ अगस्त से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान हर पहलू से आजाद हो जाएं लेकिन कश्मीरी महाराजा के तहत उनकी रियाया की तरह मंजूर करें। उस महाराजा को अंग्रेजी हुकूमत ने १५ अगस्त से आजाद कर दिया हो, तब भी।


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    गांधी ने साफ लिखा- महाराजा को इंग्लैंड के सम्राट की तरह खुद को सार्वभौम समझना चाहिए लेकिन सरकार चलाने के लिए जम्मू कश्मीर राज्य की डोगरा सेना को शेख अब्दुल्ला और उनकी आंतरिक काबीना की सलाह से इस्तेमाल करना चाहिएप्रतिप्रश्न किया कि अगर ऐसा हो तो इसमें काहे का अजूबा। राज्य का अधिमिलन विलेख भी इसकी मुमानियत नहीं करता। उन्होंने कहा-मेरी धारणा गलत हो तो मुझे चुस्त-दुरुस्त किया जाए। यह गांधी का कालजयी वाक्य था कि आज हिन्दुइज्म और इस्लाम दोनों की कश्मीर की सरजमीं पर अग्निपरीक्षा हो रही है। यदि सब कुछ सही दिशा में घटित हआ तो दोनों पक्षों के मुख्य किरदार ऐतिहासिकता में अमर हो जाएंगेमौजूदा अंधेरे के माहौल में मेरी प्रार्थना है कि देश में कश्मीर आसमान का वह सितारा बने जो रोशनी दे।


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    बापू कश्मीर समस्या को लेकर कामचलाऊ किस्म की सलाह या टिप्पणी से बचते थे। प्रसिद्ध काठियावाड़ी बैरिस्टर पूरी जिंदगी अंग्रेजों से उनके ही कानूनों की बारीकियों और खूबियों की मीमांसाओं में उलझकर उन्हें भी उलझाता रहा। ४ जनवरी १९४८ की प्रार्थना सभा में गांधी ने चेतावनी बिखेरी। पाकिस्तान कश्मीर और शेख अब्दुल्ला पर जुल्म ढाने की _कोशिश करेगा तो हिन्दुस्तान पूरी मजबूती के साथ कश्मीर की मदद करेगा और यही भारत ने किया। पाकिस्तान लड़ाई के मोर्चे से हटे और बातचीत की टेबिल पर आए। यही उसके लिए मुनासिब है क्योंकि भारत जंग होने पर पीछे नहीं हटेगा। यदि मेरा बस चले तो मैं पाकिस्तानी प्रतिनिधियों को बुलाकर समझौते की बात करूं। वे कहते तो हैं- हम समझौता करनाचाहते हैं लेकिन करते-धरते कुछ नहीं।


    गांधी ने कहा मैं भारत-पाक विभाजन कभी नहीं चाहता था। फिर भी यदि दो देश बन गए हैं, तो उन्हें साथ बैठकर अपने मसाइल सुलझाने चाहिए। गांधी एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं- कश्मीर विवाद संयुक्त राष्ट्र संघ के पाले में है। उसे वापस नहीं लिया जा सकता। यदि भारत पाक समझौता कर लें तो संयुक्त राष्ट्र संघ उसकी ताईद करेगा। यह महत्वपूर्ण है कि गांधी के नहीं रहने के बाद पाकिस्तान ने लगातार शर्तों का उल्लंघन किया जिनके उल्लंघन नहीं होने पर ही संयुक्त राष्ट्र संघ में मामला विचारण में जाता। २७ नवम्बर १९४८ की चिट्ठी में गांधी ने लेकिन लिखा- हमें जम्मू-कश्मीर समस्या को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने की कोई जरूरत नहीं है। २७ जनवरी १९४८ को अमेरिकी लेखक विन्सेंट शीन के साथ चहलकदमी करते गांधी ने कहा- जो कुछ कश्मीर में भारत सरकार कर रही है, वह उनकी सलाह से नहीं हो रहा है। सरकार के नुमाइंदे मेरी सलाह पर ध्यान दे रहे हैं, ऐसा भी नहीं है। अगर उन्हें जरूरत है तो मैं उन्हें रास्ता सुझा सकता हूं। संयुक्त राष्ट्र संघ तो इस मामले की नुमाइश लगा रहा है, भले ही मुझे संयुक्त राष्ट्र संघ का भरोसा हो। गांधी ने दीर्घ उच्छवास छोड़कर अपनी संभावित मौत के अहसास तले कहा- अगर मुझे लंबा जीवन मिला तो सब अपनी गलतियां मानकर मेरे रास्ते पर आएंगे।


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    अपनी हत्या के लगभग दस दिन पहले २० जनवरी १९४८ को प्रार्थना सभा में गांधी ने नया तर्क उछाला। उन्होंने कहा- समझ सकता हूं, हर एक बाहरी व्यक्ति कश्मीर छोड़े या बाहर से कोई कश्मीर के मामलों में हस्तक्षेप या छेड़छाड़ नहीं करे। यह समझ में आने लायक नहीं है कि वे कहें कि वे तो कश्मीर में रहेंगे, बाकी लोग कश्मीर छोड़कर जाएं। गांधी ने मासूमियत में सयाना सवाल किया कि कश्मीर आखिर किसका है? कहा जा सकता है वह महाराजा का है। (यही तो भारत सरकार की निगाह में रहा है कि महाराजा वहां के वैध शासक हैं।) महाराजा दुष्ट व्यक्ति हों और लोगों की भलाई नहीं करें तो सरकार को उन्हें अपदस्थ करने पर सोचना चाहिए। अगर महाराजा हैं, इसके बावजूद कश्मीरी मुसलमान कहते हैं कि वे हिन्दुस्तान या पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं तो आपत्ति नहीं होनी चाहिए। गांधी इसके बावजूद २८ जनवरी १९४८ के पत्र में कहते हैं-हमें कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ के मामले में जरा भी लावारवाही नहीं बरतनी है। उन्होंने दोहराया- शेख अब्दुल्ला बहादुर व्यक्ति हैं। पहली बार यह कहा कि कोई यह न कहे कि उन्होंने धोखा दिया। मैं कहता हूं कि कोई व्यक्ति दूसरे को धोखा नहीं दे सकता क्योंकि आखिरकार वह खुद को धोखा होता है। इसलिए इस मामले में मैं अश्वस्त हूं।


    ९ दिसंबर १९४६ से चली संविधान सभा की कार्यवाहियों से गांधी का लेना-देना नहीं था। पटेल और नेहरू ने गांधी से कश्मीर समस्या को लेकर मुकम्मिल विचार-विमर्श किया या सलाह मांगी, इसका कोई प्रामाणिक दस्तावेज गांधी को वरीयता देता मिलना मुश्किल है। गांधी हैं कि देश के लोगों से कश्मीरियत के जनवादी कंटूर उगाने की एकल स्वतःस्फूर्त कोशिश में दत्तचित्त बने रहे। उनका जनसंवाद एक तरह से कश्मीर के भारत में विलय और कश्मीरियत के प्रतिमानों के उद्भव और विकास की इबारत तो बनता है। उसकी अनदेखी कर दी गई या उसे संदर्भित नहीं समझा गया। यह गांधी का नहीं, इतिहास का एक विलोप माना भी जा सकता है।


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