समय-सन्दर्भ - गाँधी और महिलाएं - अवधेश त्रिपाठी

अवधेश त्रिपाठी - अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापक, कविता का लोकतंत्र, गोरख की काव्यदृष्टि और उनका रचना संसार आदि कुछ प्रमुख पुस्तकें।


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'परंपरा के पानी में तैरना तो अच्छा है लेकिन उसमें डूब जाना आत्महत्या करने जैसा है।' - मो. क. गांधी


      अंग्रेजी हकमत ने भारत को केवल भौतिक रूप से ही गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने भारत की बौद्धिक और आध्यात्मिक चेतना को भी ऐसे घटाटोप में उलझा लिया था कि लगभग समूची भारतीय चेतना अपने ही अतीत को विस्मृत कर चुकी थी। औपनिवेशिक शासन द्वारा विशेष रणनीति के तहत गढ़े गए भारतीय अतीत को हमने वास्तविक मान लिया। इसीलिए हम सुदूर अतीत को स्वर्णकाल मानने लगे थे। अपेक्षाकृत निकट के अतीत को 'मध्यकाल' और योरप की तर्ज पर 'अंधकार काल' मानना इसी औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि का परिणाम है। इस इतिहास-दृष्टि ने भारत की राजनीति, साहित्य, संस्कृति के स्वरूप में बेहद महत्वपूर्ण बदलाव किए। उपनिवेश विरोधी संघर्ष में गांधी शायद इकलौते नेता हैं जो बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर मौजूद इस संकट को पहचानते हैं और हल करने की कोशिश करते हैं। इस प्रक्रिया में वे पूर्व-औपनिवेशिक भारतीय समाज को लगभग आदर्श समाज के रूप में देखते हैं। आत्मनिर्भर ग्राम स्वराज के यूटोपिया की रचना एक तरह से उसी आदर्श समाज की ओर लौटने की युक्ति है। पूर्व-औपनिवेशिक समाज के बारे में ऐसी निद्वंद्व दृष्टि उनके चिंतन और व्यवहार में असंतुलन भी पैदा करती है। यहां मेरा संकेत वर्ण व्यवस्था के बारे में गांधी के विचारों की ओर है। ट्रस्टीशिप की अवधारणा की जड़ें भी उनके इसी चिंतन में मौजूद हैं। गांधी अछूतों और महिलाओं के बारे में अपने कार्य जारी रखते हैं। इन्हीं कार्यों के जरिए वे वह नैतिक बल हासिल करते थे कि अछूतों और महिलाओं के बारे में बोल सकें।


    गांधी ने सत्याग्रह के अपने प्रयोगों के जरिए केवल राजनीतिक आजादी नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ आध्यात्मिक आजादी पर बल दिया। यह संपूर्ण मुक्ति का विचार गुलामों की मुक्ति का ही नहीं गुलाम बनाने वालों की मुक्ति का भी विचार था। आम जनमानस पर गांधी के व्यापक प्रभाव के चलते हम अपने समाज की हर समस्या के बारे में जानना चाहते हैं कि इस पर गांधी के क्या विचार थे या यदि ये समस्याएं गांधी के सामने होतीं तो वे उनका क्या समाधान निकालते। स्त्री मुक्ति का प्रश्न भी इससे अछूता नहीं है।


    भारत का इतिहास एक अर्थ में पुरुषसत्ता का इतिहास भी है। ऐसा कहते ही तमाम लोग मिथकों और इतिहास के कुछ स्त्री पात्रों के नाम गिनाने लगते हैं। जाहिर है, इनमें से कुछ काल्पनिक और कुछ वास्तविक अपवाद हैं और अपवाद नियमों को ही सिद्ध करते हैं। सामाजिक रूप से स्त्री के बारे में चिंता १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दिखाई पड़नी शुरू होती है। समाज सुधार के आंदोलनों में सती प्रथा, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा के प्रश्न प्रमुख हो उठते हैं। अंग्रेजी समाज से संपर्क के चलते भारत के छोटे से पढ़े-लिखे तबके को यह लगने लगा था कि भारतीय समाज के पिछड़े होने का कारण स्त्रियों की दुर्दशा है। इस समय की भारतीय मनीषा अपनी महिलाओं को अंग्रेज महिलाओं की तरह अपने पतियों के हाथों में हाथ डालकर बाल डांस करने वाली स्वच्छंद महिला' तो नहीं बनाना चाहती लेकिन उनकी अमानवीय हालत में कुछ बदलाव की पैरोकारी जरूर शुरू करती है। स्त्रीत्व के भारतीय आदर्श निर्मित किए जाने की शुरुआत होती है। इन सभी आंदोलनों के नेताओं की मंशा पर प्रश्न न उठाते हुए भी यह - रेखांकित किया जाना चाहिए कि समाज सुधार आंदोलनों के केन्द्र में स्त्री का उद्धारक पुरुष ही हैवह कर्ता नहीं है। उसका सुधार किया जाना है। इसे उनके युग की सीमा भी माना जा सकता है।


    गांधी का स्त्री मुक्ति की दिशा में सबसे बड़ा योगदान तो यह है कि उन्होंने स्त्री को कर्ता बनाया। सत्याग्रह में महिलाओं की भागीदारी को संभव बनाना, उन्हें राजनीतिक शक्ति के रूप में पहचानना स्त्री मुक्ति की दिशा में गांधी की सबसे बड़ी सफलता थी। उन्होंने कहा कि 'अबला कही जाने वाली महिलाएं जिस दिन सबला हो जाएंगी उसी दिन सभी कमजोर लोग ताकतवर बन जाएंगे'। उन्होंने अफ्रीका के सत्याग्रह के दौरान अबलाओं को सबला बनते हुए देखा था। उनका मानना था कि स्त्रियों को कुदरत ने नैतिक रूप से ज्यादा सबल बनाया है इसलिए वे सत्याग्रह करने की योग्यता रखती हैं।


    गांधी महिलाओं के सामने सीता और द्रौपदी जैसी मिथकीय महिलाओं को आदर्श के रूप में पेश करते हैं। रामकथा के सबसे लोकप्रिय रूपों में आमतौर पर सीता अपने पति राम की आज्ञाकारिणी और अनुगामिनी हैं। अधिकांशतः सीता का अपना कोई स्वतंत्र मत नहीं है। लेकिन गांधी सीता को स्वाधीनता के प्रतीक में बदल देते हैं। गांधी की सीता केवल अपने हाथ से बुने हुए खादी के कपड़े पहनने वाली आत्मनिर्भर महिला हैं। गांधी की सीता नैतिकता के प्रश्न पर राम को इनकार करने का साहस रखने वाली महिला हैं। गांधी की सीता के आगे रावण की प्रचंड शक्ति भी कांपने लगती है। इसी तरह वे द्रौपदी को महान स्वाभिमानी स्त्री के रूप में व्याख्यायित करते हैं। गांधी सीता और द्रौपदी के चरित्र में आधुनिकता रोपना चाहते थे। अपनी इस कोशिश में गांधी किस हद तक कामयाब हो सके, यह बहस का अलग विषय हो सकता है।


    चूंकि गांधी शब्द और कर्म की एकता पर बल देते थे इसलिए उन्होंने स्त्री मुक्ति के प्रश्न को हर कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए जरूरी कार्यभार बना दिया। उन्होंने कहा कि यदि हम स्त्रियों की मुक्ति चाहते हैं तो इसकी शुरुआत कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अपने घरों से करनी होगी। उन्हें अपने घर की स्त्रियों को मुक्त करना होगा। उन्हें स्त्रिय अपनी पत्नियों, माताओं और बेटियों को शिक्षित करना चाहिएयदि वे यह मानते हैं कि आजादी हर व्यक्ति और देश का जन्मसिद्ध अधिकार है तो उन्हें सबसे पहले अपने घरों की महिलाओं को उन कुरीतियों से आजाद करना होगा जो उनके सर्वांगीण विकास में बाधा डालती हैं।'


    इस सबके बावजूद गांधी महिलाओं की घरेलू कामकाज में भूमिका के बारे में कोई आलोचनात्मक रुख नहीं रखते। वे स्त्रियों को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ते जरूर हैं पर उनके कामकाज का ज्यादातर दायरा उनके घरों के भीतर ही है। असहयोग आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। असहयोग आंदोलन के दौरान यह अपील की गई कि लोग अंग्रेजी संस्थाओं और सामानों का बहिष्कार करें और शांतिपूर्ण ढंग से अंग्रेजी कानून का विरोध करें। अंग्रेजी कपड़े के बहिष्कार का मतलब था ज्यादा खादी का उत्पादन और गांधी की नजर में इसके लिए महिलाएं सबसे ज्यादा उपयुक्त थीं। वे चरखा चलाने के जरिए आंदोलन से जुड़ भी रही थीं और उन्हें घर की चारदीवारी को लांघने की जरूरत भी नहीं पड़ रही थी। उन्होंने कहा कि महिलाएं बलिदान का मूर्तरूप होती हैं इसीलिए वे अहिंसा का भी मूर्त रूप होती हैं। इसलिए उनका पेशा भी उनके स्वभाव के अनुरूप होना चाहिए। उनके पेशे का माहौल युद्ध नहीं शांति का होना चाहिए।' इसी आधार पर वे मानते हैं कि कातने और बुनने का काम स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा बेहतर कर सकती हैं। क्योंकि सूत कातने का काम धीमा और शांतिपूर्ण काम है। वह स्त्रियों के स्वभाव के अनुकूल है। साफ है कि गांधी के चिंतन में महिलाओं की मुक्ति महत्वपूर्ण तो है लेकिन वह राजनैतिक प्रश्न बनने कीजगह नैतिक प्रश्न ही बनकर रह जाता है।


    स्त्री पुरुष की समता का चिंतन भी अपने अधिकांश पूर्ववर्तियों से आगे बढ़ा होने के बावजूद अपने भीतर असमानता का बीज छिपाए हुए है। वे स्वदेशी, चरखा, खादी के आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी चाहते थे क्योंकि महिलाओं की भागीदारी के बिना ये आंदोलन सफल नहीं हो सकते थे। वे मानते थे कि इस आंदोलन में महिलाओं के भागीदारी करने से यह पूरे परिवार में फैल सकता है। बच्चे मां की ही जिम्मेदारी होते हैं, इसलिए खादी आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी से बच्चे भी खादी पहनने लगेंगे। राजनेता गांधी के लिए यह एक रणनीतिक बात हो सकती थी लेकिन महात्मा गांधी के चिंतन के लिहाज से यह उनकी सीमाओं को भी रेखांकित करती है। परिवार में महिलाओं की भूमिका और उनके श्रम के बारे में ऐसे विचार देखकर लगता है कि सावधानी के बावजूद वे 'परंपरा के पानी' में डूबने लगते हैं। इसी तरह गांधी अछूत समस्या के समाधान में महिलाओं की बड़ी भूमिका मानते थे। वे कहते हैं कि यदि हिंदुओं को अपने ऊपर से छूआछूत का दाग मिटाना है तो महिलाओं को आगे बढ़कर काम करना होगा। उन्होंने अछूत समस्या को महिलाओं से सीधे तौर पर जोड़ने के लिए कहा कि 'यदि सफाई का काम करने के चलते हरिजनों को अछूत माना जाता है तो भला किस मां ने अपने बच्चे के लिए यही काम नहीं किया है।' यह भावनात्मक अपील है, महिलाओं के अनुभवों से सीधे जुड़ती है लेकिन स्त्री की संकल्पना का दायरा वही पुराना वाला ही है। मां, बेटी, बहन वाले चौखटे से अलग स्वतंत्र स्त्री की कोई छवि गांधी के चिंतन में दाखिल ही नहीं हो पाती।


    गांधी के प्रयासों से स्वाधीनता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी भले ही बढ़ी हो लेकिन थोड़ा गौर से देखने पर इस तस्वीर में भी दरारें दिखाई पड़ने लगती हैं। आजादी के आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी संख्या के लिहाज से पुरुषों की तुलना में बेहद कम थी। नेतृत्व की भूमिका में तो गिनी चुनी महिलाएं ही थीं। ये महिलाएं आमतौर पर बड़े परिवारों से आती थीं। गांव की महिलाओं की भागीदारी सतत नहीं थी। वे कभी-कभी आंदोलनों में भागीदारी करती थीं। इन महिलाओं के आंदोलन में शामिल होने से उसके तेवर में एक जुझारूपन आ जाता था। लेकिन ऐसे आंदोलन नियंत्रित करने मुश्किल होते थे। दूसरे गांधी के लिए स्त्री-पुरुष की बराबरी का मतलब श्रम के स्वरूप और पेशों में बराबरी नहीं था। घर और बाहर के काम के चले आते बंटवारे से गांधी का कोई विरोध नहीं था। वे इस श्रम विभाजन को सही मानते थे और स्त्री व पुरुष के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध चाहते थे। यदि हम यही याद करें तो वर्ण व्यवस्था के बारे में भी गांधी के विचार यही थे। वे वर्ण विभाजन को सही मानते हैं, उसके पक्ष में तर्क देते हैं और विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध की कामना करते हैं। ऐसे में उनके लिए ये सारी समस्याएं केवल नैतिक समस्यायें बनकर रह जाती हैं।


    समस्या तब और बढ़ जाती है जब गांधी इन प्रश्नों को शाश्वत प्रश्नों के रूप में देखते हैं। स्त्री और पुरुष की गैरबराबरी सभ्यता के विकास के एक खास चरण में पैदा हुई। यह प्राकृतिक गैरबराबरी नहीं है, लेकिन इसे प्राकृतिक गैरबराबरी के रूप में पेश किया जाता है। इस तरह अनैतिहासिक दृष्टि इतिहास के एक खास चरण में पैदा हुई गैरबराबरी को शाश्वत बनाकर काम्य बनाने की कोशिश करती है। यदि यह गैरबराबरी इतिहास के एक खास चरण में शुरू हुई है तो किसी खास चरण में इसके खत्म होने की भी संभावना है। गांधी की दृष्टि इस तरफ नहीं जाती। वे स्त्री-पुरुष गैरबराबरी को प्राकृतिक या शाश्वत मानते हुए कहते हैं कि 'आदम बुनते थे और हौव्वा सूत कातती थीं।' भले ही खेतिहर परिवारों में महिलाएं पुरुषों के ज्यादा नहीं तो उनके बराबर ही काम क्यों न करती हों लेकिन गांधी मानते रहे कि वे केवल घर चलाने में सहयोग करती हैं। चरखा चलाने का अर्थशास्त्र भी इसी दृष्टि से निर्धारित होता है। वे महिलाओं की स्वतंत्र कमाई के हिमायती नहीं हैं। उनके अनुसार चरखा चलाकर गरीब महिलाएं अपना परिवार चलाने में पति की मदद की सकती हैं तो खाते-पीते परिवारों की महिलाएं आय का एक अतिरिक्त स्रोत पैदा कर सकती हैं। लेकिन कमाने वाला असली व्यक्ति तो पति ही है। इसी तरह आजादी की लड़ाई में भी गांधी की नजर में महिलाओं की भूमिका सहायक की ही है। उनके लिए चरखा चलाने, पिकेट बनाने, नए सदस्य भर्ती करने, अछूत समस्या पर काम करने और सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने जैसे सहायक काम निर्धारित किए गए थे ।


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      गांधी के चिंतन में यौनिकता का भी महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्मचर्य के बारे में उनके विचारों और प्रयोगों की प्रायः चर्चा की जाती है। इसे गांधी चिंतन के सबसे कमजोर पक्ष के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। इन विचारों ने संत के रूप में उनकी छवि को मजबूत किया। स्त्रियों के बारे में नैतिक और रोमानी दृष्टिकोण के चलते वे अनायास ही महिलाओं पर बहुत सा नैतिक भार डालते चलते हैं। इस प्रसंग में गांधी की मार्गरेट सैगर के साथ बहस को याद करना प्रासंगिक होगा


    मार्गरेट सैगर अमेरिकी महिलाओं के बीच गर्भ निरोधक का प्रचार करने वाली महिला थीं। उनका कहना था कि 'महिला के शरीर पर केवल उसी का अधिकार है।' अमेरिका में गर्भनिरोधकों के प्रचार के चलते धार्मिक लोग उनसे बहुत नाराज हो गए थे। उन्हें धमकाया गया, गिरफ्तार किया गयाऔर बदनाम भी किया गया लेकिन वे अपना काम करती रहीं। वे चाहती थीं कि भारत में भी महिलाएं गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करें। भारत में उन्हें अपने इस अभियान की शुरुआत करने के लिए गांधी से उपयुक्त और कोई भी व्यक्ति नहीं मिल सकता था। ऐसा नहीं कि वे गांधी के विचारों से वाकिफ नहीं थीं। लेकिन उन्होंने गांधी के बड़े कद और प्रभाव का अपने अभियान के लिए इस्तेमाल करने की सोची। उनका मानना था कि यदि गांधी उनके विचारों से सहमत हो जाते हैं तो भारत में गर्भनिरोधकों के प्रचार में बहुत बड़ी मदद मिल जाएगी। यदि गांधी नहीं भी सहमत होते हैं तो उनके बीच के संवाद को अखबारों में प्रमुखता से छापे जाने का भी फायदा उन्हें मिल जाएगाइसी कोशिश में गांधी से मिलने पहुंची।


    सैगर गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के पक्ष में तरह-तरह के तर्क देती जाती थीं लेकिन गांधी उनकी किसी बात से सहमत नहीं हो रहे थे। उनका एक ही मत था जनन के उद्देश्य के अलावा संभोग करना पाप है। "किसी दंपत्ति के वैवाहिक जीवन में केवल तीन या चार बार संभोग होना चाहिए, क्योंकि परिवार के लिए तीन या चार बच्चों की जरूरत होती है। गर्भ निरोध का एकमात्र प्रभावी उपाय ये है कि दंपति पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करें, जब वास्तव में बच्चे की जरूरत हो तभी संभोग करें।" गांधी के इस तर्क की अव्यावहारिकता स्वतः ही स्पष्ट है। गर्भनिरोधकों के खिलाफ गांधी का दूसरा तर्क था कि किसी प्राकृतिक प्रक्रिया में अप्राकृतिक बाधा नहीं पहुंचानी चाहिए। संतति निरोध का प्राकृतिक तरीका तो केवल ब्रह्मचर्य ही हो सकता था। वे ब्रह्मचर्य को भी सत्याग्रह से जोड़ देते हैं। उनका कहना था कि 'महिलाओं को अपने पतियों का विरोध करना सीखना होगा और आवश्यकता पड़े तो अपने पतियों को छोड़ देना चाहिए।' इतना ही नहीं वे इस सिलसिले में यह भी कहते हैं कि 'अपनी पत्नी को धुरी बनाकर मैंने औरतों के संसार को जाना है। दक्षिण अफ्रीका में अनेक यूरोपीय महिलाओं से मेरा परिचय हुआ। मेरे अनुसार सारा दोष पुरुषों का हैअगर बचे हुए बरसों में मैं औरतों को ये विश्वास दिला पाऊ कि वे भी स्वतंत्र हैं तो भारत में हमें जनसंख्या नियंत्रण की कोई समस्या नहीं रहेगी। अपनी परिचित महिलाओं को मैंने विरोध के तरीके सिखाए हैं पर वास्तविक समस्या ये है कि वो विरोध करना ही नहीं चाहतीं।'


    गांधी के इन विचारों से जाहिर होता है कि स्त्री की न तो अपनी कोई इच्छा होती है न यौन सुख की कामना। इसी संवाद के दौरान गांधी ने यौन संबंध की तुलना चॉकलेट से की। यौन संबंधों के बारे में गांधी के इन विचारों के मनौवैज्ञानिक स्रोत शायद उनके अपने अनुभवों में थे। पिता की मृत्यु के समय वे अपनी पत्नी के साथ थे। इस अपराध बोध से वे आजीवन निकल नहीं सके। इसीलिए यौन संबंधों को वे कभी भी काम्य नहीं मान सके। उन्होंने सच्चे प्रेम को वासना रहित माना। गांधी ने ब्रम्हचर्य की ढाल से सैगर के तर्क के सारे शस्त्र तोड़ दिए। गांधी से मुलाकात के बाद सैगर टैगोर से भी मिलीं और टैगोर ने उनकी बात से सहमति व्यक्त की, खुले दिल से उनका स्वागत किया। गांधी के जीवित रहते नेहरू के चाहने के बावजूद भारत सरकार परिवार नियोजन के तरीकों को प्रोत्साहन नहीं दे सकी।


    परिवार नियोजन के बारे में गांधी के विचारों को जवाहरलाल नेहरू जैसे उनके सहयोगियों ने भी नकार दिया। लेकिन गांधी से नफरत करने वाले हिंदू कट्टरपंथियों ने उनके विचारों का इस्तेमाल किया। गीता प्रेस के बारे में अक्षय मुकुल की किताब से पता चलता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गांधी के गर्भनिरोधकों के खिलाफ और ब्रह्मचर्य के बारे में विचारों का खास अंदाज में इस्तेमाल किया। इसके जरिए उन्होंने यह मिथ गढ़ा कि हिंदुओं द्वारा परिवार नियोजन अपनाने के चलते दिनों दिन हिंदुओं की संख्या घट रही है और मुसलमान दसदस बच्चे पैदा करके तेजी से बहुसंख्यक होने की दिशा में बढ़ रहे हैं। गांधी को हिंदु जाति को कायर बनाने वाले व्यक्ति के रूप में भी प्रचारित किया गया। इस तरह गांधी को सामाजिक विभाजन पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया गया। .


                                                                                                                                  सम्पर्क : मो.नं. : 9868666839