कविता - रोटी...... - प्रकर्ष मालवीय
रोटी
------
मेरे बेटे ने पूछा
"पापा चुरमुरे वाला तो रोज़ चुरमुरा खाता होगा?"
मैंने कहा-
नहीं बेटा वो रोटी कमाने के लिए चुरमुरा बेचता है
और वो रोटी खाता है.
उसने फिर कहा-
पापा चाट वाले के तो बड़े मज़े हैं
रोज़ चाट खाता होगा.
मैंने कहा नहीं बेटा!
वो भी रोटी कमाने को चाट बेचता है
और वो भी रोटी ही खाता है.
फिर उसने अंडा खाते हुए कहा-
पापा अंडे वाला तो ज़रूर
रोज़ बढ़िया ऑम्लेट खाता होगा.
मैंने कहा -नहीं बेटा!
वो भी अपनी रोटी कमाने के लिए ही अंडे बेचता है
और सब्ज़ी ना होने पर अंडे से रोटी खा लेता है.
फिर कुछ ठहर कर
सोच विचार कर उसने कहा-
फिर सबको रोटी कौन देता है?
मैंने कहा- हमारा किसान.
अपनी देह तोड़कर
पसीने से फ़सल सींचकर
धरती की छाती चीरकर
निकाल लाता है रोटी इन सभी के लिए.
उसने छूटते ही कहा-
तब तो किसान ज़रूर भरपेट रोटियाँ खाता होगा!
अब मैं मौन था!
प्रकर्ष मालवीय