कविता -  जीवन का रागरंग - विशाखा मुलमुले 

कविता -  जीवन का रागरंग - विशाखा मुलमुले 


 


जीवन का रागरंग


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भोर की 


आहट के कुछ क्षण पूर्व से ही 


सुनाई देने लगता है पक्षियों का कलरव 


जैसे दम साध के बैठे हो वे रात भर


 


जैसे मायके में मिली हो दिनों बाद पक्की सहेलियाँ


जैसे दो विलग शहरों में बसी बहनों के फोन की घण्टीयाँ


वे बतियाती हैं रोशनी के मिलते ही 


वे गपियाती हैं बालकनी में फूल के खिलते ही 


 


बीच -बीच में सुनाई देता है उन्हें 


गृहस्थी का गुंजन  


याद आता है उन्हें दाने ढूढ़ने का उपक्रम 


 


और बुद्ध - सी मुस्कान लिए वे लौटती हैं सदन की ओर 


गुनते हुए कि , 


मन के तार को न कसना  इतना अधिक 


की वर्तमान का दम घुट जाए


न ढील देनी है इतनी कि अतीत में ही गुम हो जाएं !


                                                                                   विशाखा मुलमुले, छत्तीसगढ़ , 9511908855