लघुकथा - फर्क - अनिता रश्मि
फर्क
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- मुझे कुछ लिखना है। मैं दो घंटे तक अपने अध्ययन कक्ष में हूँ। मुझे कोई डिस्टर्ब न करे, ध्यान रखना। और तुम भी डिस्टर्ब नहीं करना।
लेखक महोदय ने अपने आप को कमरे के हवाले कर दिया। पत्नी ने पहले ही मेज-कुर्सी झाड़कर, पानी, सिगरेट केस, लाइटर, ऐश ट्रे आदि...आदि... इत्यादि सजा दिया था।
हर आधे घंटे में चुपचाप चाय या काफी रख आती। उनकी यही हिदायत थी।
रचना रूप लेती रही। पत्नी ध्यान रखती रही।
अचानक सामनेवाले घर से चिल्लाने की आवाज़ आई,
- यह लिखना-पढ़ना छोड़ो। घर संँभालो, घर। तुम्हारा हर समय किताब-कलम में घुसे रहना मुझे नहीं भाता।
- ये क्या कह रहे हैं?
- ठीक कह रहा हूँ। और पढ़ना-लिखना है ही, जब मैं घर पर नहीं रहूँ, तब लिखा करो।
- दिन में कहाँ समय मिलता है।
- तो मत लिखा करो।
- इसीलिए तो रात के एकांत में लिखती हूँ। सारे काम निपटाने के बाद...।
- ... नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूँगा। ये सब बेकार काम मेरे सामने नहीं चलेगा।
- बेकार काम! मेरे बचपन का सपना है यह।
- बस! तो बस!!
- तो? क्या करूँ? आग लगा दूँ?
- हाँ! लगा दो।
उधर, लेखक की बीवी पाँचवी बार सुंदर से मग में काॅफी ढाल रही थी। वह गदगद थी।
बेहद गदगद!
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