लघुकथा - मुआवजा- अनिता रश्मि
मुआवजा
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- साहब! साहब!
बदहवास कर्मचारी अंदर घुसा।
क्या है? - उन्होंने सर उठाये बिना पूछा।
- वहाँ एक महिला के साथ चार गुंडों ने बदमाशी की है।
बदमाशी? - उन्होंने सर उठाया।
- मेरा मतलब है, रेप... ।
ओह! तो ऐसा कहो न। - उन्होंने बहुत स्टाइल से माथे को इधर- उधर झटका दिया।
- भीड़ बढ़ रही है। सर, चलिए जल्दी।
वे कुर्सी में और धंस गए। - मैं वहाँ जाकर क्या करूंँगा?
- आप... आप चलकर सांत्वना तो दे ही सकते हैं।
कुर्सी तोड़ना सदा से पसंद था उन्हें। वे पसंदीदा काम में व्यस्त रहना चाहते थे।
- अरे औरतों की कोई इज्जत होती है ! लुटी, तो लुटी। बाद में आराम से जाएँगे। पद पर रहना भी आफत है।
- नहीं साहब अभी चलें। नहीं तो लोग...।
-... नहीं तो क्या लोग? सुरक्षाकर्मी कहाँ है? एलर्ट करो उन्हें। चलो, दो घंटे बाद मेरे साथ ही चलना।
वे फिर से शुतुरमुर्ग बन गए।
- बस! दो-चार हजार का मुआवजा मुँह पर मार देंगे, फिर चिंता किस बात की।
उन्होंने गहरी ओर शातिर साँस ली। कहा,
- वे लुटती रहें, हम मुआवजा मुँह पर मारते रहें... करना क्या है। और लोगों को चाहिए भी क्या... हैं, बोलो तो।
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