कविता - वह मर जाना चाहती है - राहुल कुमार बोयल

कविता - वह मर जाना चाहती है - राहुल कुमार बोयल


 


वह मर जाना चाहती है


 


कभी-कभी वो ....मर जाना चाहती है


कभी-कभी वो ......मर भी जाती है।


और कभी तो ऐसा भी हो जाता है


न तो साँस आती है, न ही निकल पाती है


 


मरती है वो तब ही जब... मरना नहीं चाहती है


और जब चाहती है मरना, वो मर नहीं पाती है


आम बात है ऐसे मरना ....जैसे रोज़ वो मरती है


ऐसी मौत की वो तमन्ना विल्कुल नहीं करती है


 


वो मरती है तब तब जब कोई उसका चरित्र घड़ता है


वो मरती है तब भी जब उस पे कोई स्त्रीदोष मढ़ता है


 


वो मरती है तब भी जब उसको कोई रंग- रूप,


नाप- माप, डील-डौल, चाल-ढाल, नयन-नक्श


और ना जाने कैसी- कैसी विचित्र भाषाओं में पढ़ता है


 


छोटी- छोटी आशंकाओं से घबरा के मर जाती है


कभी-कभी अट्टहासों से टकरा के मर जाती है


वो अपनी आशाओं के उस प्रेमी पर भी मरती है


वो जीवन देता रहता है जब-जब वो मर जाती है


 


मरना नहीं चाहती वो ......


क्षोभ में, ग्लानि में, पराजित सी, अवसादित सी,


बंधन में, क्रन्दन में, अल्प सी, मित सी, निंदित सी


मरना नहीं चाहती वो...........


नित्य नये टुकड़ों में, अश्रुपूरित, रक्तरंजित


नित्य नये कपड़ों में, नग्न नयनों से शापित


 


वो मरना चाहती है पर मरने से पहले चाहती है


विष खाऊं तो झाग न उगलूं


, एक झटके में ही श्वास मैं उगलूं।


जल जाऊं तो बिना दर्द के छाले हों


फिर एक क्षण भी ना प्राण मेरे हवाले हों


                                                                                                                           सम्पर्क - राहुल कुमार बोयल, मो.नं. : ७७२६०६०२८७