कविता - प्रेम की ज्यामिति - विशाखा मुलमुले
प्रेम की ज्यामिति
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हम दोनों चल रहे थे
सीधी रेखा पर क्रमवार
एक लुभावना मोड़ आया
और वह समकोण हो गया ।
खड़ी रही मैं वहाँ बरसों ,
हाथों में मनकों के वर्तुल लिए ,
आयत के स्वरों को मंत्रित किए,
कि शायद ,
तीन समकोण के बाद बनेगा आयत
पर तुम्हें तो बढ़ना था ,
सो तुमने समकोणों की
सीढियाँ बनाई ,
मैं उसी जगह पर न्यूनकोण हो
त्रिभुज बन आयी ।
कालांतर में मेरी परिधि में
तुमने कई चक्र लगाए
पर मेरे केंद्र के सम्मुख
तुम कभी न ठहर पाये
दूर खड़े मेरे आलय को देख
बस यही बुदबुदाये कि ,
"शिखर दर्शनम् पाप नाशनम "
विशाखा मुलमुले, छत्तीसगढ़ , 9511908855