कविता - प्रेम और मैं  - डा.ऋतु त्यागी

कविता - प्रेम और मैं  - डा.ऋतु त्यागी


प्रेम और मैं
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जब मैंने पाठ्यक्रम की रेत में धँसकर 
अपनी हर कक्षा में 
पिछली सीट पर बैठने वाली 
तमाम बिगड़ी लड़कियों को कनखियों से 
प्रेम की शरारतों में मग्न पाया


तब मैंने भी कनखियों से ही मान लिया उनके बिगड़ेपन को 
फिर मैंने भी हर एक अच्छे टीचर की तरह उन्हें जोरदार डाँटा और थोड़ा समझाया


पर एक बार मैंने उनके मन के फफोलों पर रख दिये थे जब अपनी उँगलियों के शिखर
उस समय वो हँसी थी पर मेरी चीख कईं इंच ऊपर उछल गई थी


और मैंने तब मान लिया था
उनके लिए प्रेम बर्फ़ का गोला है 
जो उनके मन के फफोलों को राहत की झप्पी दे जाता है


ऐसे ही जब मैंने 
अपने घर के काम में हाथ बँटाने वाली से सुना 
कि भाग गई अपने यार के साथ नौ बच्चों की माँँ


और सुना कि हर दिन वह पति के जूते चप्पलों के नीचे कुचल देती थी अपना स्वाभिमान
तब मुझे लगा कि उस औरत के लिए प्रेम एक चिंगारी है 
जो शायद उसके बुझते स्वाभिमान की लौ को जलाये रख सकती है।


हाँ! ये सच है बिल्कुल सच है
कि प्रेम हर जगह नहीं पनपता पर जब पनपता है 
तो निरा ठूँठ कभी नहीं होता 
घनी छाया के साथ झुकता चला जाता है


इसलिए मैं अब जब भी कभी सुनती हूँ 
शब्द "प्रेम" 
तो मौन होकर सिर्फ़ उसको सुनती हूँ ।


                                                                                                  डा.ऋतु त्यागी