कविता - पिता की पीठ  - डा.ऋतु त्यागी

कविता - पिता की पीठ  - डा.ऋतु त्यागी


पिता की पीठ
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उस दिन पिता ने मुझसे कहा
"अब मुझे चले जाना चाहिए"।


मैंने उनकी पीठ में पड़ती
दरारों को देखकर कहा


"हाँ! अब आपको 
चले जाना चाहिए"।
तब वह चुप हो गये।


और मैं चादर की सिलवटों को
अपनी हथेलियों से दूर करने लगी थी।


मैं ऐसा कर रही थी 
पर क्यों कर रही थी?


बस उस समय मुझे लगा था 
कि जैसे चादर पर 
पिता का चेहरा उगा हुआ है 
जिसकी सिलवटें यदि मैं उतार दूँगी


तो शायद उनकी पीठ पर पड़ी 
दरारें थोड़ी भर जायेंगी।


                                                                                                                डा.ऋतु त्यागी