कविता -  पेंडुलम - गौरव भारती

कविता -  पेंडुलम - गौरव भारती


 


पेंडुलम


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मैं जब भी याद करता हूँ


पिछली मुलाक़ात


मुझे गुलाब और बोगनवेलिया एक साथ याद आते हैं


 


सच कहूं


तुम्हारे सवाल


इतने वजनी होते हैं कि


इधर-उधर ताक कर


मैं बचने के उपाय के ढूंढने लगता हूँ


और तलाशने लगता हूँ


वही खंडहर


जहाँ मेरे पूर्वजों ने दफ़्न किये थे तुम्हारे सारे सवाल


 


मैं चाहता था


छोड़ आऊं तुम्हारे सारे सवाल उसी बैंच पर


और तुम्हारे माथे को चूमकर


तुम्हें अलविदा कहूँ


मगर कल और आज के बीच


नींद और ख्वाब के बीच


झूल रहा हूँ मैं


मानों कोई पेंडुलम...


 


                                         गौरव भारती,शोधार्थी ,भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय


                                                 कमरा संख्या-108, झेलम छात्रावास , जे.एन.यू.-110067


                                                 मोबाइल- 9015326408