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कविता - पलकों से बहते हैं झरने - विजय कनौजिया
पलकों से बहते हैं झरने
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रूठ गए मेरे कुछ अपने
देखे थे जिनके संग सपने
अरमानों के दीपक भी अब
तन्हाई में लगे हैं बुझने..।।
साथ तुम्हारा जबसे छूटा
एकाकीपन मुझे सताए
आंखों में बदरी है छाई
पलकों से बहते हैं झरने..।।
आंखों की बारिश में अब तो
भीग रहे हैं सारे सपने
अंतर्मन की पीड़ा ऐसी
दूर हुए मेरे सब अपने..।।
शायद मैं ही बहक गया था
रिश्ते के आडम्बर में
वो तो अवसरवादी ही थे
मैं ही साथ लगा था चलने..।।
चलो स्वयं को समझाऊंगा
आज यही होता है अक्सर
प्रीति-रीति की नई परंपरा
अब तो है खुद को ही सहने..।।
अब तो है खुद को ही सहने..।।
*विजय कनौजिया*,45 जोरबाग, नई दिल्ली-110003,मो0-9818884701
Email- vijayprakash.vidik@gmail.com