कविता - नदी के तीरे - विशाखा मुलमुले
नदी के तीरे
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किशोरवय बेटा पूछता है अक्सर !
कैसे देख लेती हो बिन देखे
कैसे सुन लेती हो परिधि के बाहर
कैसे झाँक लेती हो मेरे भीतर
पिता तो देखकर भी अनदेखा
सुनकर भी अनसुना
और पहचान कर भी अनजान बने रहते हैं
मैं कहती हूँ , पिता हैं पर्वत समान
जो खाते है बाहरी थपेड़े
रहते हैं मौन गम्भीर
देते हैं तुम्हें धीर
मैं उस पर्वत की बंकिम नदी
टटोलती हूँ तुम्हारे समस्त भूभाग
आजकल की नहीं यह बात
इतिहास में है वर्णित
सभ्यताएँ पनपती हैं नदी के तीरे
विशाखा मुलमुले , छत्तीसगढ़ , 9511908855