कविता - ना जी ना - डा.ऋतु त्यागी
ना जी ना
--------------------
वह बर्तनों में खड़कती है
रोटियों में बेल देती है अपनी देह का बे-सुरा राग
फ़र्श पर रगड़ती है देह की रगड़
झाड़ू से बुहार देती है
मन की तड़प
ना जी ना
ये ना पूछो
कौन है वो ?
बस इतना जानो
जो भी है
हर घर में धमक जाती है किसी भी समय
हम सुविधाओं से तर-ब-तर औरतों के चेहरे पर
दो इंची मुस्कान लाने का करिश्मा भी ये ही संपन्न कर पाती है
एक कप गर्म चाय का स्वाद देकर
खरीद लेते हैं अक्सर हम इसे
और फिर एक नया काम बता कर
बटोर लेतें हैं दिन भर अपने काम करने की वजह
ये वो है
जो उधारी के संदूक में रखती है अपनी पगार
इसके बच्चों के स्कूल की फीस, मकान का किराया
इसी संदूक से निकलकर अपने ठिकाने पर पहुँच ही जाता है सही सलामत
और महीने की आख़िरी तारीख़
वो तो कब का! इसके घर के कैलेंडर से
कटा चुकी है अपना नाम।
डा.ऋतु त्यागी,