कविता - मनमौजी इतिहास  -  दिलीप डूंगरजाल

कविता - मनमौजी इतिहास  -  दिलीप डूंगरजाल


 


मनमौजी इतिहास


 


सियासत के बंद कमरों के


घुप्प अँधेरे में चीखता है इतिहास


सन्नाटों को तोड़ती उसकी कमजोर आवाज


वहीँ से उद्घोषित हो


वहीँ टकराकर लौट आती है


कदाचित सियासत के पास


कोई आयामवर्धक उपकरण रहा होगा


तभी तो लौटकर तीव्र आवाज से


छिन्न-भिन्न हो गयी


उसके कानों की कोमल झिल्लियाँ


अब बस झनझनाहट सी ही महसूस होती है उसे


शब्दों की गर्मी के साथ


मूक दर्शक सा देखता रहता है


और कोशिश करता है


लबो की थरथराहट से


असफल अनुमान लगाने का


शासकों की तरेरती आँखें


अब उसके बदन को नोचने को उतारू है


नही सुनता अब वह


बेगुनाहों की रिरियाती हुई बेदम आवाज


मदद को तरसते


सैंकड़ो असहायों के भर्राते शब्द I


उसे सुकून भी यह जानकर कि


अब उसे मासूम निर्दोषों को


कड़ी सजा देने वाले


तानाशाही आदेशों को सुनना नहीं पड़ता I


फाइलों में उत्कीर्ण झूठे आंकड़ो


और नग्न दावों के बोझ तले दबे लाभार्थियों


के आवेदनों पर


अब वह विचार नहीं करता I


भीड़तंत्र की भेट चढ़ते


असहायों की मार्मिक पुकार


अब उसकी निद्रा में अनावश्यक व्यवधान नहीं डालती I


मनमौजी और आवारा सा हो गया है अब वह भी


जो अच्छा लगे शासन को वही लिखता है


उचित अनुदान पाता है


और सांसारिक सपनो की चादर ओढ़ सो जाता है


 


 


 


दिलीप डूंगरजाल , 83 शिवराम कॉलोनी, जगतपुरा,जयपुर , फ़ोन न. 9875075024