कविता -  मछली बाज़ार - विशाखा मुलमुले 

कविता -  मछली बाज़ार - विशाखा मुलमुले 


 


 मछली बाज़ार


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मछली खाना और फ़साना दोनों ही है दुरूह काज 


दोनों में लगता है असीम धैर्य , जुगत और निगाह 


मछली फ़साने के लिए जाल बिछाना पड़ता है 


और खाने के लिए हडिड्यों का जाल हटना पड़ता है 


 


दोनों ही मामलों में मछली की आँख रहती है 


पूरी खुली फटी - फटी , बड़ी - बड़ी 


फिर चाहे हो वह पौम्फ्रेट , बांगड़ा या सुरमई 


 


कभी - कभी लगता है मछली ख़ुद ही फस जाती है जाल में 


क्योंकि रोज़ आता है मछुआरा नियत समय मे , नियत जाल 


और नियत भोजन को लेकर और बैठ जाता है नाव में 


 


चंचल , चपल मछलियाँ अपनी नियती लिए फिरती है 


औ' मिटाती है किसी बड़ी मछली या बड़े आदमी की भूख 


 


मछली खाने के बाद आती नहीं डकार 


देह और गृह में बस रच बस जाती है गंध 


फ़साने वाले की भुजाओं में उमड़ पड़ती है मछलियाँ औ'


खाने वाले की देह होती जाती है मछली सी चिकनी चमकदार 


 


सुना है ,


घर की मुर्गी होती है दाल बराबर 


तो , 


मत्स्य कन्याओं देख लो आस - पास कहीं बिछा तो नहीं है जाल !


क्योंकि मछली खानें और फ़साने वालों से पटा पड़ा है ये बाज़ार 


 


                                                                                 विशाखा मुलमुले , छत्तीसगढ़ , 9511908855