कविता  - जलवायु परिवर्तन या विद्रोह...!-दिलीप डूंगरजाल

कविता  - जलवायु परिवर्तन या विद्रोह...!-दिलीप डूंगरजाल


 


जलवायु परिवर्तन या विद्रोह...!


 


सालो-साल मुस्कुराती रही थी प्रकृति


मानव के सहचारी आचरण से


तब वह उसे दाता और पोषण-घर की संज्ञा देता था


पर अब नथुनों में भरती हुई लालच की गंध


और जेब के बढ़ते आकार ने


बदल दिया है उसका नैतिक आचरण


चिमनियों से उठते धुएँ में


अब उसे सुकून मिलने लगा है


अब वह उसे कच्चे माल की पदवीभी देने लगा है


अब वह उसे गुलाम बना लेना चाहता है


और जोत लेना चाहता है


नदियों के तल की जमीन को


छेद देना चाहता है


उसके आँचल को गहरे नलकूपों से


झोंक देना चाहता है


उसे उद्योगों की तप्त भट्टियों में


दमन से परेशान हो


प्रकृति ने भी उतर फेंका है


अब ममतामयी चोला


वह क्यूँ न करे अम्ल-वर्षा


जब मानव ने हवा में भी है जहर घोला


बढ़ते तूफान और आकाश चूमती लहरें


तोड़ देना चाहती है


मानुषिक अत्याचारों की कठोर जंजीरें


जमींदोंज कर देना चाहती है


उसके हृदयतल पर खड़े दम्भी कारखानों को


बारम्बार फटते बादल नाराज है


उन गगनचुंबी इमारतों से


जो उसके स्वछन्द बहाव में बाधा डालती है


चक्रवाती तूफानों की तेज हवाएं


अपने साथ उड़ा ले जाना चाहती है


मानुषिक अहंकार को


भू-भाग की कमी से उफनती नदियाँ


अपने साथ बहा ले जाना चाहती है


कुपोषणीय और अंधे विकास को


पुकार करती है धरती


पातालतोड़ खदानों व नलकूपों से त्रस्त हो


अंततः थर्राती है


और भर लेती है लाशों से उन खोखले छेदों को


आग उगलते ज्वालामुखी


मानों सन्देश देते है


क्रांति औए नवसृजन का


यह केवल जलवायु परिवर्तन ही नहीं


वरन विद्रोह है प्रकृति का


मानव की बदलती प्रवृत्ति के विरुद्ध I


 


दिलीप डूंगरजाल , 83 शिवराम कॉलोनी, जगतपुरा,जयपुर , फ़ोन न. 9875075024