कविता - हेली - सहेली - विशाखा मुलमुले
हेली - सहेली
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पीठ से पीठ टिकाए
बैठीं है हेली - सहेली
सुन रही है
सुना रही है अपना दुःख - दर्द
मालूम है उन्हें ,
मिलायेगी नजरें तो
पिघल जाएगा बचा हुआ हिम खंड
बढ़ जाएगा जलस्तर !
पीठ से पीठ टिका
वे बढ़ा रहीं है हौसला भी
बन रहीं है कमान - सी मेरुदंड का
एक मजबूत आधार
जैसी होती है , पतंग की कमान को
थामे दूसरी सीधी बांस की डंडी
ताकि ,
उडान भर सके दोनों की जीवन रूपी पतंग
और छू सके आकाश !
पीठ से पीठ टिका
देख रहीं है संग साथ
दो दिशाएँ भी / दशाएं भी
देख रहीं है पूरब और
देख रहीं है पश्चिम भी
सोच रहीं है
काश !
दुनिया की तमाम स्त्रियां भी
यूँ ही टिका लें पीठ से पीठ अपनी !
विशाखा मुलमुले , छत्तीसगढ़ , 9511908855
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