कविता - गधापच्चीसी - विशाखा मुलमुले
गधापच्चीसी
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गधों ने स्वीकार किया गधा होना
तो वह ढोता रहा माल - असबाब , आदेश
घोड़ा रहा चालाक
सीखता गया नित नई चाल
ठुमक , लयबद्ध , तिरछी , कभी मौके पर अढाई घर
गधों ने गर्दन झुकाए लगाई
नियत मार्ग पर फेरी
न देखी वादी न देखा प्रतिवादी
बदलते रहे मौसम
बदलता रहा मालिक
बदलता रहा राजा
जबकि गधों ने न की
कभी बदलाव की चाह
चाह शब्द से कहाँ रहा यूँ भी कभी उनका वास्ता
उन्हें मालूम था वे हकाले जाएँगे उसी तरह
जैसे हकाले गए हैं अब तक
उन्होंने मंजूर किया सुनना
सुनकर अनसुना करना भाषणबाजी
अपने खुरों से बजाई उन्होंने हर बार बेतहाशा ताली
वादों , शब्दों का अनचाहा बोझ लिये
वे चुपके - चुपके लगाते रहे फेरी
उन्हें मालूम है घोड़ों की हिनहिनाहट से गूँजती है वादी
उनकी ठसक पर निहाल होती बहुसंख्यक आबादी
बोझ तो आखिर में उन्हें ही ढोना है
गधा तो आरम्भ से उन्हें ही होना है ।
विशाखा मुलमुले, छत्तीसगढ़ , 9511908855