कविता - एक पति का बयान - गौरव भारती
एक पति का बयान
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तुम नहीं हो
अब बस तुम्हारी कुछ तस्वीरें हैं
जो रह गयी हैं
उसी तरह जैसे
मकां के ऊपरी मंजिल पर
पुरानी फर्नीचरें
कभी-कभी
सीढ़ियां चढ़कर
इन पुरानी फर्नीचरों को निहारता हूँ
इक उम्र भर की याद
पटरी पर दौड़ती
किसी ट्रैन की माफ़िक गुजरती है
शोर करती हुई
सच कहूं
तुम्हारा होना
मेरा होना था
मैं हूँ या नहीं
इसका एहसास अब तभी होता है
जब पंखुरी दबे पांव आती है
और कांधे से झूल जाती है
अब सयानी हो गयी है पंखुरी
सिक्कों के लिए रूठती भी नहीं
शायद तुम्हारे साथ ही
उसका रूठना भी चला गया
या क्या पता
उसे वही सिक्के पसंद थे
जो तुम्हारी आँचल की गठरियों में बंधे होते थे
सुबह की चाय
आज भी मिलती है
मगर उसकी गर्मी मुझे तपाती नहीं
रोज की तरह
उसे गटक लेता हूँ
चुस्कियाँ भरना शायद भूल गया हूँ मैं
सुबह एक वक़्त के बाद
घर मकां हो जाता है
सब रोज की तरह निकल जाते हैं
और मैं घंटों
खामोश निगाह लिए
सड़क पर आते-जाते लोगों को देखता हूँ
कोई रुकता नहीं
सबके पास कोई न कोई काम है
अब शामें बोझिल लगने लगी है
सड़क पर बच्चे खेलते भी नहीं
याद है तुम्हें
मैं किस तरह
इन बच्चों को डाँटा करता था
और ये बच्चे मुझे चिढ़ाते हुए भागा करते थे
अब ऐसा कुछ नहीं होता
खेल अब मोबाईल की स्क्रीन पर खेले जाते हैं
रात-रात भर
नींद भी नहीं आती
शायद इसलिए कि
रोज के हिस्से के अल्फ़ाज़ खर्च नहीं कर पाता
मगर क्या करूँ
दर-ओ-दिवार भी बस सुनते हैं
उनके साथ गुफ़्तगू का मजा नहीं आता
सोचता हूँ
तुम आओ इक रात
और ले चलो मुझे
अपने साथ अपनी दुनिया में
सुना है-
'वहां शामें बोझिल नहीं हुआ करती
और नींद सबको मयस्सर है'.
गौरव भारती,शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
कमरा संख्या-108, झेलम छात्रावास , जे.एन.यू.,पिन-110067,
मोबाइल- 9015326408