कविता - धरती और बय - कृष्ण चन्द्र महादेविया
धरती और बया
सूखे-सूखे छीज -तिनके ही
पता नहीं
कहां-कहां से लाकर
सलीके और सरलता से
चीर छांट करती हो
विलक्षण कारीगरी करते
चपल टहनियों पर
बेहद अनुपम और सुन्दर
बुनती हो घोंसला।
हौले-हौले सुस्ताते
टहनी के झूले में झूलते
खुशी की सूरखी
मुखड़े में लगाए
भरोसे पर गर्वित
धरती से एकमेक रहती हो
बहुत मन मनमौजी हो तुम
ओ श्रमशील बया।
सुकून से भरे-भरे
प्रेरणा और आत्म-विश्वास से
सब जन निहारेंगे तुम्हें
बुलाएंगे अपने पास
मनभाते कौतुक करते
ओ वांकी वया
गुदड़ी की लाल हो तुम।
किसान और तुम
तुम और किसान
एक दूजे से
मिलते हो बहुत
एकदम सच है बया
जिंदा है ये धरती
सदैव श्रमशीलों से ही।
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