कविता - बालकनी अब उदास दिखने लगी है - गौरव भारती,
बालकनी अब उदास दिखने लगी है
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बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियां पड़ी हैं
दोनों खाली
कोई नहीं जाता उधर
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नही
बस एक शाम है
जो कभी-कभी बैठ जाती है
एक कुर्सी पर
रात के इन्तजार में
कभी-कभी
धूप का एक टुकड़ा
कोने में पड़ी धूल पर जम जाता है
कभी-कभी
हवा के थपेड़े खाकर
कुछ पत्तियां
फर्श पर बिखर जाती हैं
कुछ डिबियां यहाँ-वहाँ रखी है माचिस की
कुछ तीलियाँ बेतरतीब सी बिखरी हैं
जले-अधजले
सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए हैं
जिसकी कशें
किसी के ख्याल में
सीने को जलाने के लिए भरे गए थे
गमलों में
कुछ पौधे लगे थे
सब सूख चुके हैं
बस एक कैक्टस बचा है
जो जिंदा है
क्योंकि उसने अकेले जीना सीख लिया है
बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियां पड़ी हैं
दोनों खाली
कोई नहीं जाता उधकविता
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नहीं....
गौरव भारती,शोधार्थी,भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
कमरा संख्या-108, झेलम छात्रावास , जे.एन.यू.,पिन-110067
मोबाइल- 9015326408