कविता - और स्वतंत्रता फिर हाथ से निकल गई - विशाखा मुलमुले
और स्वतंत्रता फिर हाथ से निकल गई
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तय की हम सखियों ने मिलने की जगह
मुक़र्रर किया दिन
अपने अपने पंथ का चुनाव किया
उत्साहित हुईं
भविष्य के सपने देखे
उम्मीदें भी पाली
बस एक समय , एक साथ स्वतंत्रता का
बिगुल नहीं फूंका
कुछ ने ऐन मौके पर हाथ खड़े कर दिये
कुछ ने सम्पूर्ण स्त्रीजाति को ताक पर रख
केवल अपने क्षेत्र का पालन व संरक्षण किया
अंततः सन 1857 के स्वातंत्र्य आंदोलन की तरह
हम एकजुट न हुईं
और स्वतंत्रता हाथ से निकल गई
जबकि कमल और रोटी के तर्ज पर
हमने भी पहुँचाये व्यापक सन्देश
थे वे इस युग के पर थे रोटी के ही अधीन
संदेशों को बदलना ही था स्त्रियोचित संदेशों में
इस बार भी , हम बस रोटियां बाटती और बनाती रह गईं
मन का कमल तपिश में कुम्हलाता गया
हम मौकापरस्त न हुईं
और स्वतंत्रता फिर हाथ से निकल गई
परतंत्रता हमारे गुणसूत्रों में क्या कुंडली मार पैठ गई
जबकि , जब बापू चल रहे थे
लाठी टेक
नमक सत्याग्रह का था वह समय
हम दौड़ रहीं थी पीछे ख़ून का नमक किये
बापू की लाठी न होने पर , बनी हम लाठी , दिया अपना कंधा
एक दिन भाग ही गए विदेशी देश छोड़
बच्चे , बूढे , जवान सबको मिली स्वतंत्रता
मवेशी , हवा , पंछी तो पहले ही थे स्वतंत्र
हम भारत माता की जय में अटक गईं
हम सोने की चारदीवारी में देवी
मिट्टी की चारदीवारी में बनी रहीं भोग्या
चारो खानो से चित्त हुईं हम
अचानक ही कच्छपो में बदलने लगी
समेटने लगी ख़ुद को अपनी ही देह में
और स्वतंत्रता दाएँ - बाएँ से गुज़र गई
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विशाखा मुलमुले ,छत्तीसगढ़ ,9511908855