कविता - आकाश - गौरव भारती,
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आकाश
हसरतें नहीं
ख्वाब नहीं
कोई ख़्वाहिश भी नहीं
सुबह होती है
शाम होती है
इसका होना बस होना है
क्योंकि इसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता
दर्द कम नहीं होता
सूनापन भरता नहीं
टीस कमती नहीं
मैं देखता हूँ
वक़्त की सुइयाँ
टिक..टिक..टिक..टिक...
मैं देखता हूँ
चूहों का बेख़ौफ़ भागना दौड़ना
ईंट की दीवारों पर
फर्श पर
मैं देखता हूँ
खिड़की से बाहर
लेकिन कोई मुझे नहीं देखता
हां, यह वही खिड़की है
जिससे हर शाम स्टैंड बल्व की पीली रौशनी
ताक झाँक करती है
मेरा सूना आकाश
जिसे कभी भी मैं नीला नहीं रंगता
अपनी कूची से जब भी भरना होता है रंग
मैं उसे पीला रंग देता हूँ
या कभी काला
कभी छोड़ देता हूँ यूँ ही
मेरा सूरज
लाल नहीं होता, उजला भी नहीं होता
पीले आकाश में उसका हरा होना
मुझे बहुत भाता है
इस आकाश में तारें नहीं है
दूर दूर तक कोई तारा नहीं
शायद, सब टूटकर गिर गए
चाँद को भी किसी ने निगल लिया होगा
बहुत पहले दिखा था एक बार
अब नहीं दिखता
बहुत सारे लिबास टंगे हैं
हैंगर में
वह आता और वक़्त के हिसाब से तन पर चढ़ा जाता
आज उसने नीला पहना है
कल शायद लाल पहना था
हरा , काला , उजला , गेरुआ बहुत से लिबास हैं
वह तलाश ही लेता है रंगमंच
अच्छा अभिनेता होगा शायद
मैंने तो लिबास बदलते देखा है बस
उसके बाद कुछ पता नहीं
मुझे लगता है
बहुत तालियाँ बटोरता होगा
बहुत दूर से
कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनाई देती है
मैं सुनना चाहता हूँ
ऐसा लग रहा है जैसे
दो मक्खियाँ एक दूसरे पर भिनभिना रही हो
मैं सोचता हूँ
दोनों मक्खियों को पकड़ कर
बंद कर दूँ एक हवादार बोतल में
अचानक कुछ टूटने की आवाज
शायद कोई शीशा
यक़ीनन आईना होगा
अब उसे बदलना होगा
नहीं तो दिख जाएगा एक टूटा हुआ इंसान
मैं देखता हूँ
सड़क
भागती हुई मोटर , ट्रक ..
जो छुप जाती
दूर दिखाई पड़ती उस मोड़ पर जाकर
मैं सोचता हूँ
कभी-कभी
उस मोड़ तक हो आऊं…
गौरव भारती,शोधार्थी,भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
कमरा संख्या-108, झेलम छात्रावास , जे.एन.यू.,पिन-110067
मोबाइल- 9015326408