बाल  कविता-  सोचूंगा कभी खुद की  - नीरज त्यागी

 


 


बाल  कविता-  सोचूंगा कभी खुद की  - नीरज त्यागी


 


सोचूंगा कभी खुद की


 


 


ऐसा नही था कि फिक्र मेरी कभी मुझको नही थी


कुछ वक्त से ना बनी और कुछ वक्त से ठनी थी।।


 


 


यूँ तो दर - बदर भटकना भी कभी पसंद तो ना था


ऐसे एक जगह ठहरना पड़ेगा इसका पता ना था1


 


कोई अपनो का हवाला देता रहा और कोई अपना,


इस भीड़ में कभी मैं अकेला रहुँगा ये यकीन ना था


 


कभी फुरसत ना मिली सोच सकूँ, कैसे सफर करूँगा।


मैं एक जगह रुका रहा और कारवाँ चलता चला गया।


 


सोचूंगा कभी खुद की भी,क्या वो समय भी आएगा


लगता है अब यूँ ही सफर में जीवन कटता जाएगा1


 


चेहरा तो रोज देखता है तू आईने में,


उसमे रूह का पाप कहाँ दिखता है।


 


आस्तीन पर कई दाग है अब तेरे.


यूँ लिहाफ बदलने से क्या होता है।


 


सबको पता है बहुत समझदार है


तू, यूँ नादान बने रहने से क्या होता है1


 


घाव तेरे अपने बहुत ज्यादा रिसते है।


फिर तू दूसरे के घाव क्यों कुरेदता है।


 


सुना है दूसरे के लिए मरहम है तेरे पास,


उन्हें अपने जख्म पर क्यों ना रखता है1


 


दर्द देकर कहता है दर्द की दवा लाया है।


तुझपर ये मासूम चेहरा कहाँ जंचता है।।


 


अपनी आँखों से आंखें तो मिला आईने में,


आईना बोल सकता नही,ये माना मैंने,


पर सबको तेरा मक्कार चेहरा दिखता है1


 


 


सब जानकर हमेशा ही अंजान बना रहता है।


तेरे नकली चेहरे का हुनर सबको दिखता है11


 


 


                                                          सम्पर्क: नीरज त्यागी, ६५/५ लाल क्वार्टर राणा प्रताप स्कूल के सामने गाजियाबाद-२०१००१, उत्तर प्रदेश


                                                                                                                                                                 मो.नं. : ९५८२४८८६९८