कविता - सम्भवामि युगे - युगे - विशाखा मुलमुले

कविता - सम्भवामि युगे - युगे - विशाखा मुलमुले


 


सम्भवामि युगे - युगे 


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अचानक से नहीं होती भोर 


नैपथ्य में चलता है अभ्यास


अलसुबह आकाश समेटता है 


रात की चादर और 


पसरता है धीरे - धीरे उजास 


 


उनींदी आँखों से 


मिचमिचाता है भानु 


तब फूटती है पूर्व में दिशा 


ताजे दिन की लालिमा 


पछाड़ती जाती है 


बासी दिन की कालिमा 


नीलम - सी देह पर तब


पीताम्बर धारण करता है 


दिवस का सारथी 


 


हे पार्थ ! 


तिमिर में जन्मते एवं पनपते हैं 


कौरवी विनाशकारी विचार 


उसी तरह जिस तरह


मन का अंधकार ले जाता है नैराश्य में 


तुम न नतमस्तक हो उनके सम्मुख


धीर धरो ; अभ्युदय होते ही रवि के


खुलेंगे दिनमान में ज्ञान के चक्षु


शनैः शनैः स्थापित होगा पुुनः धर्म 


                                                                                    विशाखा मुलमुले  ,छत्तीसगढ़ ,9511908855


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