समीक्षा - मानवता का अलख जगाती-'राहे हक' - हितेश कुमार सिंह

समीक्षा - मानवता का अलख जगाती-'राहे हक' - हितेश कुमार सिंह


 


  मुनीर बख्श 'आलम' हिन्दी-उर्दू गजलिया शायरी में एक जाना पहचाना नाम है। 'राहे हक़' उनकी गजलों का एक संग्रह है। यह संग्रह गजल संग्रहों की बाजारू भीड़ से एकदम अलग है। इस अलगाव का कारण है-उनका सूफ़ियाना अंदाज और बेबाकीपन। भूमण्डलीकरण, बाजारीकरण एवं पूँजीवादी व्यवस्था के दबाव से मुक्त वह अपने सिद्धान्तों के साथ संघर्षमय जीवन जीते हुए समाज के समक्ष एक नजीर पेश करते हैं।


    आलम साहब, कबीर साहब के समाजवाद से प्रेरित दिखाई देते हैं। जिस प्रकार कबीरदास ने अपने दोहों के माध्यम से समाजवाद की पताका फहराई थी, वही काम आलम साहब अपनी शायरी के द्वारा कर रहे हैं:-


    साईं इतना दीजिए जितना कुटुम्ब समाय


    मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय


                                                            (कबीरदास)


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    मालो-ज़र का न तू जखीरा दे,


    सिर्फ दो रोटी-दाल दे मौला।।


    कबीरदास की ही भाँति आलम साहब ईश्वर से खजाना या अपार धन-दौलत न माँगकर सिर्फ दो रोटी और दाल माँगते हैं।


   


    'राहे हक़' को पढ़कर प्रतीत होता है कि इसका शायर भारतीय संस्कृति के मूल्यों से चिर-परिचित है और इसको पुनस्थापित भी करना चाहता है। यही कारण है कि शायर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एवं 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की विचारधारा का समर्थन करते हुए अपनी गज़ल के माध्यम से इस तथ्य को रेखांकित करता है - 


    आदमी, आदमी से प्यारे करे,


    सबको जीने की वह शगल दे-दे


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    हर तरफ खुश गवार मंजर हो


    ऐसा कुछ इन्तिजाम दे मौला


    शायर मुनीर बख्श 'आलम' समय की महत्ता को भली-भाँति समझते हैं। समय के मूल्य को वह जीवन निर्माण के लिए अति आवश्यक मानते हैं और अपनी शायरी के माध्यम से यह संदेश आज जन तक पहुँचाते भी हैं -


    तुम्हें जो करना अभी शौक से कर लो 'आलम'


     गलत वो लोग जो छोडा ये है कम के लिए


    आलम साहब यहाँ भी कबीर बाबा के प्रभाव से नहीं बच पाए हैं


    काल करै सो आज कर, आज करे सो अब।


    पल में परलै होयगी, बहुरि करेगो कब ।।


    कोई भी शायर जब शायरी लिखता है तो उसकी नज़र समाज पर गहरी रहती है। वह समाज में हो रहे बदलाव, उसके बदल रहे मिजाज़ को बड़ी पैनी दृष्टि से परखता है और उसको प्रस्तुत करने या व्याख्यायित करने में तनिक भी संकोच नहीं करता। हमारी ग्रामीण संस्कृति आज जिस तरह से शनैःशनैः काल कवलित हो रही है, वह बहुत ही शोचनीय है। भूमण्डलीकरण या बाजारीकरण के दबाव में पेड़े-पौधे, पशु-पक्षियों के स्थान कंक्रीट के जंगल जिस तरह से स्थान ग्रहण कर रहे हैं, उससे शायर चिन्तित दिखाई देता है। जिस प्रकार नगर का व्यक्ति व्यक्तिवाद रूपी ज्वर से ग्रस्त होकर अपने आस-पास के व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं रखता, उसी प्रकार गाँव का व्यक्ति भी नगरीय-संस्कृति के जाल में फंसता जा रहा है


    "इक दूजे से रहा न मतलब


    अपना गाँव शहर लगता है"


    वर्तमान समय की लगभग सभी विसंगतियों से आलम साहब वाकिफ हैं। आज बड़ा से बड़ा आदमी जिस तरह से छोटी-छोटी चीजों में अपना चरित्र बदलता रहता है और उस चरित्र के समर्थन में नाना प्रकार के झूठ बोलकर उसे स्थापित करना चाहता है, वह स्थिति बहुत ही शोचनीय है। यह चिन्ता आलम साहब की शायरी में दिखाई भी देती है


    "जिगर में आग लबों पर गुलाब रखता है,


    वो अपने चेहरे पे दो-दो निकाब रखता है।"


    मुनीर बखुश 'आलम' की शायरी समाज के विभिन्न सरोकारों से होते हुए अतमन की गहराइयों तक अपना खुशबू बिखेरती है। उनकी गजल यदि परम्पराओं का पालन करती है तो नई परम्पराओं को पैदा भी करती है। उनका कहना है कि यदि आप मनुष्य हैं तो मनुष्यता दिखाइए। एक अच्छे मनुष्य के जो गुण हैं, उन गुणों को अपने में आत्मसात करने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। समाज की विभिन्न समस्याओं का निराकरण करने का प्रयास करते रहना चाहिए और यदि उनका निराकरण नहीं कर सकते तो कम से कम समस्याओं को पैदा नहीं ही करना चाहिए - 


    "जो आदमी है तो इस तौर


    तू दुराव न रख,


    कहीं किसी से कोई दिल में


    भेद-भाव न रख।"


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    लगी जो आग जमाने में गर


    बुझा न सके


    तो यह ख्याल रहे और भी


    अलाव न रख।"


    भारत की वर्तमान स्थिति को देखकर शायर भयाक्रांत है। स्वतंत्रता के नाम पर राजनेताओं ने देश का जो कबाड़ा किया है और करते ही जा रहे हैं वह अत्यन्त चिन्ता का विषय है। लूट की यह संस्कृति देश को किस कगार पर पहुँचाएगी, इसको शायद ईश्वर भी नहीं बता सकता  - 


    माझियों को नींद आने लग गई है,


    आज कश्ती डगमगाने लग गई है।


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    यह नदी गहरी न कोई थाह है,


    नाव जर्जर बे खबर मल्लाह है।


    आलम साहब की शायरी की दृष्टि व्यापक है। वह मनुष्यता को बचाए रखने के लिए संघर्षरत है। वह भी ऐसी मनुष्यता जो केवल सिद्धान्त में ही नहीं अपितु व्यवहार में भी दिखाई देनी चाहिए। उनकी शायरी मानवता, नैतिकता, सहजता एवं ईमानदारी आदि मानव-मूल्यों को स्थापित करने का भरपूर प्रयास करती है, साथ ही साथ शायरी के पाठकों एवं श्रोताओं को इन मुद्दों पर सोचने को विवश करती है


    कभी इस फूल पर बैठी, कभी उस फूल पर बैठी।


    तितलियाँ गंध का आपस में बंटवारा नहीं करती।।।


    समीक्षित पुस्तक : राहे हक़-मुनीर बखूश 'आलम' अनामिका प्रकाशन, ५२, तुलाराम बाग, इलाहाबाद-२११००६, मूल्य २५० रुपए


                                                            सम्पर्क-353/183/2, टैगोर टाउन, इलाहाबाद-211002, उत्तर प्रदेश, मो.नं. : 9452790210