एक पति का बयान
तुम नहीं हो
अब बस तुम्हारी कुछ तस्वीरें हैं
जो रह गयी हैं
उसी तरह जैसे
मकां के ऊपरी मंजिल पर
पुरानी फर्नीचरें
कभी-कभी
सीढ़ियां चढ़कर
इन पुरानी फर्नीचरों को निहारता हूँ
इक उम्र भर की याद
पटरी पर दौड़ती
किसी ट्रैन की माफ़िक गुजरती है
शोर करती हुई
सच कहूं
तुम्हारा होना
मेरा होना था
मैं हूँ या नहीं
इसका एहसास अब तभी होता है
जब पंखुरी दबे पांव आती है
और कांधे से झूल जाती है
अब सयानी हो गयी है पंखुरी
सिक्कों के लिए रूठती भी नहीं
शायद तुम्हारे साथ ही
उसका रूठना भी चला गया
या क्या पता
उसे वही सिक्के पसंद थे
जो तुम्हारी आँचल की गठरियों में बंधे होते थे
सुबह की चाय
आज भी मिलती है
मगर उसकी गर्मी मुझे तपाती नहीं
रोज की तरह
उसे गटक लेता हूँ
चुस्कियाँ भरना शायद भूल गया हूँ मैं
सुबह एक वक़्त के बाद
घर मकां हो जाता है
सब रोज की तरह निकल जाते हैं
और मैं घंटों
खामोश निगाह लिए
सड़क पर आते-जाते लोगों को देखता हूँ
कोई रुकता नहीं
सबके पास कोई न कोई काम है
अब शामें बोझिल लगने लगी है
सड़क पर बच्चे खेलते भी नहीं
याद है तुम्हें
मैं किस तरह
इन बच्चों को डाँटा करता था
और ये बच्चे मुझे चिढ़ाते हुए भागा करते थे
अब ऐसा कुछ नहीं होता
खेल अब मोबाईल की स्क्रीन पर खेले जाते हैं
रात-रात भर
नींद भी नहीं आती
शायद इसलिए कि
रोज के हिस्से के अल्फ़ाज़ खर्च नहीं कर पाता
मगर क्या करूँ
दर-ओ-दिवार भी बस सुनते हैं
उनके साथ गुफ़्तगू का मजा नहीं आता
सोचता हूँ
तुम आओ इक रात
और ले चलो मुझे
अपने साथ अपनी दुनिया में
सुना है-
'वहां शामें बोझिल नहीं हुआ करती
और नींद सबको मयस्सर है'.
गुजरते हुए इस शोर में
कुछ नहीं बचेगा
गुजरते हुए इस शोर में
बस बचा रह जाएगा जहन में
तुम्हारे हाथों का कौर
तुम्हारा अल्हड़पन
तुम्हारी जिद
तुम्हारी मुस्कराहट
और तुम्हारे गालों पर लुढ़कते हुए आँसुओं का बिम्ब
जो मेरा पीछा करेंगी
तमाम उम्र ...
जिजीविषा
होते हैं कुछ लोग
जो बार-बार उग आते हैं
ईंट और सीमेंट की दीवार पर
पीपल की तरह
इस उम्मीद में कि-
'एक दिन दीवार ढह जाएगी.
आकाश
हसरतें नहीं
ख्वाब नहीं
कोई ख़्वाहिश भी नहीं
सुबह होती है
शाम होती है
इसका होना बस होना है
क्योंकि इसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता
दर्द कम नहीं होता
सूनापन भरता नहीं
टीस कमती नहीं
मैं देखता हूँ
वक़्त की सुइयाँ
टिक..टिक..टिक..टिक...
मैं देखता हूँ
चूहों का बेख़ौफ़ भागना दौड़ना
ईंट की दीवारों पर
फर्श पर
मैं देखता हूँ
खिड़की से बाहर
लेकिन कोई मुझे नहीं देखता
हां, यह वही खिड़की है
जिससे हर शाम स्टैंड बल्व की पीली रौशनी
ताक झाँक करती है
मेरा सूना आकाश
जिसे कभी भी मैं नीला नहीं रंगता
अपनी कूची से जब भी भरना होता है रंग
मैं उसे पीला रंग देता हूँ
या कभी काला
कभी छोड़ देता हूँ यूँ ही
मेरा सूरज
लाल नहीं होता, उजला भी नहीं होता
पीले आकाश में उसका हरा होना
मुझे बहुत भाता है
इस आकाश में तारें नहीं है
दूर दूर तक कोई तारा नहीं
शायद, सब टूटकर गिर गए
चाँद को भी किसी ने निगल लिया होगा
बहुत पहले दिखा था एक बार
अब नहीं दिखता
बहुत सारे लिबास टंगे हैं
हैंगर में
वह आता और वक़्त के हिसाब से तन पर चढ़ा जाता
आज उसने नीला पहना है
कल शायद लाल पहना था
हरा , काला , उजला , गेरुआ बहुत से लिबास हैं
वह तलाश ही लेता है रंगमंच
अच्छा अभिनेता होगा शायद
मैंने तो लिबास बदलते देखा है बस
उसके बाद कुछ पता नहीं
मुझे लगता है
बहुत तालियाँ बटोरता होगा
बहुत दूर से
कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनाई देती है
मैं सुनना चाहता हूँ
ऐसा लग रहा है जैसे
दो मक्खियाँ एक दूसरे पर भिनभिना रही हो
मैं सोचता हूँ
दोनों मक्खियों को पकड़ कर
बंद कर दूँ एक हवादार बोतल में
अचानक कुछ टूटने की आवाज
शायद कोई शीशा
यक़ीनन आईना होगा
अब उसे बदलना होगा
नहीं तो दिख जाएगा एक टूटा हुआ इंसान
मैं देखता हूँ
सड़क
भागती हुई मोटर , ट्रक ..
जो छुप जाती
दूर दिखाई पड़ती उस मोड़ पर जाकर
मैं सोचता हूँ
कभी-कभी
उस मोड़ तक हो आऊं…
एल्बम एक आईना है
नजरें साथ नहीं दे रही
हाथ अचानक कांपने लगते हैं
थोड़ी दूर चलता हूँ
हाँफ कर बैठ जाता हूँ
एक वक़्त था
जब वक़्त नहीं था
आज एक दिन बड़ी मुश्किल से बीतता है
मैं महसूस करता हूँ कि
वक़्त को खर्च करना भी एक कला है
बिल्कुल उसी तरह
जैसे कविता लिखना
या फिर किसी वाद्य-यंत्र को साधना
गुजरते हुए वक़्त में
मैं तुम्हें याद करता हूँ
लेकिन याद करने की कोशिश में
बहुत कुछ छूट जाता है
ऐसा लगता है
मानों उपेक्षित यादों ने आत्महत्याएं कर ली हो
सच कहूं तो
भूलने लगा हूँ अब
भूलने लगा हूँ अपना बचपन
खुद का जवान होना
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी सूरत
यहाँ तक कि नींद लेना भी
आजकल एल्बम लिए घंटो बैठा रहता हूँ
खुद को ढूँढता हूँ
तुम्हें टटोलता हूँ
एल्बम एक आईना है
जिसे निहारकर खुद को याद रखना आसान हो जाता है
बालकनी अब उदास दिखने लगी है
बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियां पड़ी हैं
दोनों खाली
कोई नहीं जाता उधर
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नही
बस एक शाम है
जो कभी-कभी बैठ जाती है
एक कुर्सी पर
रात के इन्तजार में
कभी-कभी
धूप का एक टुकड़ा
कोने में पड़ी धूल पर जम जाता है
कभी-कभी
हवा के थपेड़े खाकर
कुछ पत्तियां
फर्श पर बिखर जाती हैं
कुछ डिबियां यहाँ-वहाँ रखी है माचिस की
कुछ तीलियाँ बेतरतीब सी बिखरी हैं
जले-अधजले
सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए हैं
जिसकी कशें
किसी के ख्याल में
सीने को जलाने के लिए भरे गए थे
गमलों में
कुछ पौधे लगे थे
सब सूख चुके हैं
बस एक कैक्टस बचा है
जो जिंदा है
क्योंकि उसने अकेले जीना सीख लिया है
बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियां पड़ी हैं
दोनों खाली
कोई नहीं जाता उधर
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नहीं....
मेरी प्यारी दोस्त
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए बस एक जोड़ी आँखें
जिसमें तुम खुद को निहार सको
और महसूस कर सको
आँसुओं की चंद बूदें
अपने कांधे पर
जो सिर्फ तुम्हारे लिए बहे हों
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए एक खुला आकाश
जिसमें तुम मनचाहे तारें टांक सको
और रंग सको सूरज को उन रंगों से
जो तुमने बचपन में
तितलियों के पीछे भागते हुए जमा की होंगी
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए एक घर
जहाँ थककर लौटा जा सके
उसी तरह
जैसे लौटते हैं 'पिता'
मुझे पता है यह सब
क्योंकि मेरी माँ को भी यही चाहिए था
और शायद माँ की माँ को भी
मेरी प्यारी दोस्त
ख़्वाब और हकीकत के बीच
एक दूरी होती है
तुम्हें वह दूरी तय करनी है
तुम्हें चौखटें गिरानी हैं...
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
तस्वीरें डराती हैं
असहाय रूदन किसी दुःखस्वप्न से मालूम होते हैं
मगर ये हक़ीक़त है मेरी जां
कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
सत्ताधारियों के लिए
ठंडे होते मासूम जिस्म महज आंकड़े हैं
देश के भविष्य नहीं
उनके अपने आंकड़े हैं
उनका अपना विकास है
सबसे अलहदा भविष्य देखा है उन्होंने
लेकिन मैं उस भविष्य का क्या करूँ
उस विकास का क्या करूँ
जो उन बस्तियों से होकर नहीं गुजरती
जहाँ रोज भविष्य
वर्तमान का शिकार हो रहा है
इस अर्थतंत्र में
इस बाजार में
जहाँ सबकुछ दांव पर लगा है
मेरी एक छोटी सी ख़्वाहिश है कि
उनका देश रहे न रहे
हमारा मुल्क रहना रहना चाहिए
बस्तियां रहनी चाहिए
किलकारियां रहनी चाहिए
तितलियां रहनी चाहिए
और रहनी चाहिए खिलौनों की गुंजाइश...
नाटक जारी है
यह कमरा नहीं है
मेरी जिंदगी की चौहद्दी है
इस चारदीवारी के बाहर की दुनिया
मुझे नहीं पता
जानने की कोशिश
अब करती भी नहीं
इन दीवारों में कैद है
मेरी पहली चीख
वह शायद बहुत लम्बी थी
उस दिन एक रिश्ता बना था
दुनिया के हर मर्द से
हर मर्द मेरी नजर में एक ग्राहक
सिवाय इसके कुछ नहीं
वह कुछ हो भी नहीं सकता
एक जिस्म के अलावा मैं भी कुछ नहीं
जितनी सीलन और पपड़ियाँ ओढ़े यह दीवार है
उससे कहीं ज्यादा
चेहरे छपे है मेरे दिमाग में
एक अजीब सी भूख
कतई इंसानी नहीं
जितनी झुर्रियां चेहरे पर
उतनी ज्यादा भूख
तरह-तरह के चेहरे
तरह तरह की उँगलियाँ
मेरे जिस्म पर रेंगती
तमाचों की बरसात
सन्नाटा
कोई चीख नहीं
कोई आह नहीं
कोई प्रतिक्रिया नहीं
उठती चीख दब कर रह जाती है कहीं
उठते हाथ हवा में झूल कर रह जाते हैं
मन होता है
मैं भी झूल जाऊं
छत से लटकते इस पंखे में, मगर
एक ही रात में कितनी बार
दुनिया से अलग दुनिया है मेरी
हर सुबह लेकर आती है नींद
नींद जिसमें ख्वाब नहीं पलते
दहशत पलती है
बहुत सारे दरवाजे हैं
मगर सब बंद
अँधेरा ही पालता है मुझे
उजाले से डर लगता है
बहुत बहुत ज्यादा
जब पशु हमलावर होता है
सामने वाले प्रतिद्वंदी को मिटा देना चाहता है
ख़त्म कर देना चाहता है वजूद
जितनी ऊब खीझ सन्नाटा होता है
सब निकाल देना चाहता है
एक साथ एक बार
वह नोचता है पंजे से
उसके दांत अचानक लम्बे हो जाते हैं
नाख़ून इरादतन नुकीले
वह छोड़ जाना चाहता है निशान
क्योंकि उसे पसंद है
उसका नाम
वह मोहर बनना चाहता है
वह छप जाना चाहता है
बहुत निशान है
कुछ बाहर
कुछ भीतर
खिड़कियों से झांकती नजर
उस पार जब देखती है
हसरतें आँखों में उमड़ने लगते हैं
हवा का एक झोंका
उन हसरतों को कटी पतंग की तरह कहीं उड़ा ले जाता है
वह टंग जाती है किसी खूंटी से
जहाँ वहशी धूप उसे जला डालता है
फूल कुम्हला जाते हैं
खुशबू हवा हो जाती है
मैं पर्दा गिरा देती हूँ
अब अँधेरा है
कोई उजास नहीं
कोई ख्वाब नहीं
कोई सवाल नहीं
कोई प्रतिकार नहीं
नाटक जारी है ...
वह बीड़ी पीता है
मैनपुरी के किसी गाँव के किसी गली का
वह रिक्शा चालक
बीड़ी पीता है
नब्बे पैसे की एक बीड़ी
मेरे सिगरेट से लगभग सोलह गुनी सस्ती है
पैडल पर पैर जमाते हुए
वह बीड़ी के फायदे बताता है और
बड़े शहर में छोटी-छोटी बातें करता है
जिसे मैं उसके वक्तव्य की तरह नोट करता हूँ
बड़े-बड़े पीलरों के ऊपर
जहाँ मेट्रो हवा को धकियाते हुए सांय से गुज़र जाती है
उन्हीं पीलरों के नीचे से
रिक्शा का हैंडल मोड़ते हुए
वह मुझे वहाँ तक पहुंचाता है
जहाँ वक़्त लेकर ही पहुँचा जा सकता है
सिगरेट की कशें लेते हुए
मुझे उसका ख्याल आता है
और मैं सोचता हूँ-
इंसानों को बीड़ी की तरह सस्ता, सहज और उपलब्ध होना चाहिए .
पेंडुलम
मैं जब भी याद करता हूँ
पिछली मुलाक़ात
मुझे गुलाब और बोगनवेलिया एक साथ याद आते हैं
सच कहूं
तुम्हारे सवाल
इतने वजनी होते हैं कि
इधर-उधर ताक कर
मैं बचने के उपाय के ढूंढने लगता हूँ
और तलाशने लगता हूँ
वही खंडहर
जहाँ मेरे पूर्वजों ने दफ़्न किये थे तुम्हारे सारे सवाल
मैं चाहता था
छोड़ आऊं तुम्हारे सारे सवाल उसी बैंच पर
और तुम्हारे माथे को चूमकर
तुम्हें अलविदा कहूँ
मगर कल और आज के बीच
नींद और ख्वाब के बीच
झूल रहा हूँ मैं
मानों कोई पेंडुलम...
बीच सफर में कहीं
ठहर कर
रिहा करता हूँ
खुद को कल से
ठहर कर
तय करता हूँ
अगला पड़ाव
ठहर कर
देखता हूँ भागती हुई भीड़
और नजरें फेर लेता हूँ
ठहर कर
टटोलता हूँ खुद को
और पाकर खुश होता हूँ
बीच सफर में कहीं ...
दीवारें
घने अँधेरे कमरे में
तपती गर्मी में नमी तलाशते हुए
दीवार से लगकर
सोता हूँ
थोड़ी देर बाद
देखता हूँ -
दीवारों की भी एक दुनिया हैं
जहाँ हजारों रंगी पुती दीवारें
आपस में बातें करती हैं
एक बड़ी ऊँची दीवार
छोटी दीवारों को अपने नीचे देख खुश होती है
छोटी दीवारें सर उठाकर देखती हैं
फिर सर झुका लेती हैं
मानों उनका आकाश गिरवी रखा हो
और भी कुछ दीवारें हैं
जो मुन्तजिर मालूम होती हैं
सबकुछ देखते-सुनते हुए भी खामोश
हां , ये वही दीवारें हैं
जिन्होंने कई दफा आत्महत्याएँ रोकी हैं
मैं सुनना चाहता हूँ
इन दीवारों को
इनके साथ बतियाना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ ये बोलें
उसी तरह जैसे बल्लीमारान की गलियों में खड़ी दीवारें बोलती हैं
मैं चाहता हूँ
इनका हाथ पकड़ कर
घुमा लाऊं इन्हें खुबसूरत, निश्छल और सजीव पहाड़ियां
ताकि लौटकर ये बड़ी दीवारों का दंभ तोड़ सके
और लौटा सकें
छोटी दीवारों को उनके हिस्से का आकाश …
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