कविता - तुम जरूर रोना - शालिनी मोहन 

तुम जरूर रोना


 


जब पहाड़ जैसा दुख


कलेजे पर आ बैठता है


अंधकार धूप सोख-सोख


दुख को हरा रखता है


 


पहाड़ जैसे दुख को कलेजे पर उठाए


तुम रोना, जरूर रोना


वैसे ही रोना


जिस तरह भी तुम चाहो, तुम्हें अच्छा लगे


छाती पीट-पीट, दहाड़-दहाड़


सबके सामने, अकेले में छुप-छुप


हाथ-पैर पटक-पटक, देह को छोड़


तुम रोना, जरुर रोना


 


दुख को व्यक्त करने की


उतनी ही आजादी है


जितनी की खुशी को


इसलिए अपने कठोर दुख, असह्य पीड़ा को


एक छोर से दूसरी छोर तक नाप


तुम रोना, संतुष्टि भर रोना


और जब रोते-रोते तुम्हारी आँखें सूनी हो जाए


सारे खारे पानी को


उलीचना अपने कलेजे पर


कि गीला रह सके कलेजा


और दुख बना रहे हरा


तुम रोना, जरूर रोना


 


किसी भी दिन जब टाँगना


अपना कलेजा खूटी पर


अपनी सूनी आँखों से


कहना सावन भादो को


कि जब आए


दे जाए तुम्हारी आँखों में


एक बूंद पानी


तुम रोना, जरूर रोना


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