कविता - मजबूर पिता - विनीता परमार 

 


मजबूर पिता


 


पहले की तरह


आज फिर देर से उठे पिता


अखबारों में उलझे


खोज रहे थे उस भयानक बीमारी के कारण


मुझे बुलाकर दिखलाया वो विज्ञापन


बता रहे थे कितना सहज तो है इलाज।


आठ वर्षों बाद भी स्वीकारा नहीं


वो यहीं तो है आसपास


मुझमें, बहनों की लिखावट में या


तुम्हारी फसल को लहलहाते देख


खुश होते पिता अक्सर कहते हैं


जुझारु थी वो


सावित्री की तरह मुझे लौटा लाई सीसीयू से


मैं सिर्फ देखता रह गया।


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