कविता - महाकवि की आँखें - लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता

महाकवि की आँखें


 


(हिंदी के वरिष्ठतम कवि केदारनाथ सिंह के लिए)


जब कुछ हुनरमंद


और कुछ नौसिखिए हाथ


कैद कर रहे थे तस्वीरों में


महाकवि को


महाकवि की आँखें


उतनी ही सतर्क थीं उस क्षण भी


जैसे उन क्रियाओं में गढ़ रही हों कोई कविता


 


वैसे कुछ और लोग भी थे


जो उतर रहे थे


तस्वीरों में


लेकिन, सिर्फ शरीर से


आत्मा से नहीं


जबकि महाकवि बड़े हुलास के साथ


उतर रहे थे


शरीर और आत्मा दोनों से


आँखों के रास्ते


 


वैसे तो महाकवि जानते हैं


कि तस्वीरों में बचे रहने से


कविता में बचे रहना


ज्यादा सुरक्षित है


और कविता में बचे रहने से भी


कहीं अधिक सुरक्षित है


जीवन में बचे रहना


लेकिन, महाकवि यह भी जानते हैं


जहाँ नहीं होती है कविता


जहाँ नहीं होता है जीवन


वहाँ होती हैं ये तस्वीरें


होने और न होने के बीच!


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