कविता - मां का रोना - कौशल किशोर

कौशल किशोर - कौशल कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार जन्म : सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश) त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'रेवान्त' के प्रधान संपादक। प्रकाशित कृतियां : दो कविता संग्रह और तीन लेख संग्रह प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष।


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मां का रोना


 


जब से देखा है


मैंने मां को रोते हुए देखा है


मेरी यादों में बसा है


मां का रोना


बहुत दूर किसी गहरे अंधे कुएं से आती


उतनी ही दूर तक जाती


दबी-फंसी-घुटी-घुटी आवाज


अन्तर्मन के किसी कोने में


टूटे बरतन की तरह


आज भी बजती है


 


बचपन के दिन थे


वह बच्ची थी


बेटी थी


बहन थी


घरौंदे बनाती थी


तीज-त्योहार और सोहर के गीत


वह झूम-झूम कर गाती


लहर-लहर लहराकर ऐसे नाचती


कि उसे नहीं होती अपनी सुध


 


वह डांट सुनती


बात-बात पर झाड़-मार खाती


और इतने जोर से रोती


कि उसका रोना मशहूर हो गया


 


वह बड़ी हुई


रसीली जवान


शादी हुई


बच्चे हुए घर-आंगन गुलजार हुआ


बाबूजी की तरक्की हुई


खुशहाली आई पर


उसका रोना जारी रहा


 


वह बैठ जाती किसी कोने में


मुंह ढंक कर रोती रहती


इसे रुदन-कला की प्रौढता कहिए


कि वह ऐसे रोती


अब आवाज नहीं होती


आंसुओं से भरा होता उसका चेहरा


 


मैं नहीं देख पाता मां का यह हाल


आंसुओं से सने बाल


भींगा आंचल


उससे लिपट जाता


जाकर चिपट जाता


वह सीने से लगा लेती


अपनी नन्हीं नन्हीं अंगुलियों से


उसके आंसू पोछता


बाल सहलाता


खुद भी रोने लगता


वह कहती -


क्यों नहीं जल्दी बड़ा हो जाता


तू ही मेरा दुख हरेगा


दलिद्दर मिटाएगा


और मैं बड़ा हुआ


घर में बहू आ गई


वह मां के पांव छूती थी


उसकी तरह और भी थे


जो उसके पांव छूते थे


उसका ओहदा ऊंचा हुआ


वह दादी बनी


घर-आंगन किलकारियों से भर गया


 


फिर भी मां का रोना नहीं रुका


वह रोती


छिप छिप कर रोती


घर के पिछवाड़े


किसी कोने में


दीवार की ओर मुंह किए


चेहरा ढंक कर रोती


ऐसे सुबकती


कि रोते हुए पकड़ी न जाए


और पकड़ी गई तो


सबसे सुनती झाड़


मुझसे भी -


अम्मा क्या लगा रखा है


जब देखो तब.......'


वह कुछ झण मेरी ओर देखती


फिर अपना चेहरा ढंक लेती


कर लेती पीठ मेरी ओर


शीशे की तरह दरक गई थी


वह उम्मीद


जो उसने पाली थी।


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