कविता - जमीन का अनुबंध - विनीता परमार 

 


जमीन का अनुबंध


 


पिता ने जाते समय सौंपी


एक रहस्यमई संदूक


अजीब इच्छा जाहिर की


संभाल सको तो बचा लेना


मेरी ए छोटी सी जागीर।


 


डरते-डरते जैसे ही खोली


बक्से में बंद जागीर


अलग-अलग खानों में थे


काले, पीले, लाल कुछ दाने


बचपन की धुंधली तस्वीरों में


कीचड़ में लथपथ पिता खेतों में


छींट रहे थे ऐसे ही दानों को।


गुणा-भाग लगाने पर


इन बक्सों में कैद करने


से भला


पिता मुझे माफ करना


मैं तुम्हारी जमीन का ही अनुबंध


कर रहा हूं।


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