कविता- छक्का - अनिता रश्मि
छक्का
किस तरह की इनकी हँसी
किस तरह का इनका गान
बेसुरे जीवन की अनूठी बेसुरी तान
ठोस मर्दीली आवाज़ में
ठेठ महिला से ढंग-रंग
सजावट किसी कोमल नवयौवना सी
माथे पर सजी मृदंग
देख पूरी दुनिया है दंग
नेत्रों की तीक्ष्णता में
नहीं सकते तुम आँक
इनके रौबीले स्वर में है
दीनता के छुपे हुए
मातृ हृदय के दो फाड़ हुए
बिखरे दोनों फांक
इनकी उपस्थिति में
ठहाकों, लचक की बरसात
नहीं दिखते मन के घाव
दिल के छाले,
रिसते लाल आँसू खू के
होती नहीं ऐसी कोई भी बात
अब तो शहर की सड़कों पर
नहीं रहती इनकी ढोलकी थाप
ठिठोली भरी हँसी जो
व्यंग्यात्मक भी होती थी
क्या दीवारें अहम की हटा
दो मीठे पल सने बोल को थाम
कर सकते हो इनसे इनकी बात
ये भी हैं सब के समान
एक सुलझे बड़े इंसान
क्या हुआ जो नहीं रचा
अपने निर्मल कर कमलों से उसने,
कैसा है यह निष्ठुर भगवान!
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