कविता - स्त्री - विशाल किशनराव अंधारे

कविता   - स्त्री  - विशाल किशनराव अंधारे


 


स्त्री


 


समय समय पर आती स्त्रियाँ


मुझे हरदम कविताएँ लगी


 


कुछ मेरी कविता के अंश बनी


तो कुछ कविता वन के उभरी


 


मोहीत करती रहीं मुझे


उनके अंदर की कविताएँ


 


कुछ गजलों सी लगी


नियमों में वसी


जिनके व्याकरण भी नहीं समझ पाया मैं


 


कुछ समाज को दर्पण दिखाती


कोई अपना ही दर्पण भुली


खुद को खोजती


कुछ उस शायरी सी लगी


जिनको सुनना बहुत दर्दीला था


 


कुछ अपहरण हुई सीता सी लगी


तो कुछ शबरी की मीठे बेर सी


कुछ कैकयी सी शातीर


तो कुछ उर्मिला सी अकेली


 


कुछ उस बेबस द्रौपदी की तर्हा


जिनका चीरहरण गावं की पंचायत ने किया


कुछ सभ्यता की जंजीर से बंधी


कुछ लास्ट लोकल सी खाली खाली लगी


तो कुछ मेले में गुम हुये उस बच्चे सी रोती मिली


कुछ रात सी गहरी लगी


 


इन सब ने खोया था कुछ न कुछ


 


किसीने खोया था आत्मसुख


किसीने खोयी थी बच्चों के लिये अपनी नींद


किसींने अपना समय'


किसींने अपना जीवन


 


क्या खोना ही स्त्रीत्व है????


 


 


                                                         सम्पर्क : विशाल किशनराव अंधारे पोस्ट-मुरुड, जिल्हा- लातुर, महाराष्ट्र, पिन-४१३५१०


                                                                                                                    मो.नं. : ९८६०८२४८६८, ८९९९१५२३२२