गौतम चटर्जी - कवि। फिल्मकारसत्यजित रे, श्याम बेनेगल, मणि कौल और क्रिस्टफ़ किसलोवस्की से गहन संवाद पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तक 'शिखर से संवाद' में संकलित। फ़िल्म पर पुस्तक 'क्लासिक सिनेमा' में मिकेलेंजेलो अन्टोनीओनी और जी. अरविंदन से संवाद संकलितअब तक अपनी नौ गैर कथाचित्र और तीन कथाचित्र फिल्में प्रदर्शित कर चुके हैं। फ़िल्म 'कुहासा' का पिछले साल विश्व प्रीमियर हुआ। बनारस में रहते हैं।
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गिरीश कर्नाड से उनके परे लेखन पर यह संवाद दो बार में परा हुआ था। पहली बार २००५ में संयोग बना जब उन्होंने अपना अन्तिम नाटक अंग्रेजी में लिखा 'हीप ऑफ ब्रोकेन इमेजेस'। यानी 'खण्डित छवियों का ढेर'। उन्होंने जीवन भर लिखा अंग्रेजी और कन्नड़ में और बातचीत की सिर्फ अंग्रेजी मेंबाहर भी और घर में भीजबकि वे कन्नड़भाषी थे और उनकी मातृभाषा थी कोंकणी। उनके नाटकों का हिन्दी में अनुवाद अंग्रेजी से ही होता रहा है और इस नाटक का अभी तक नहीं हुआ है। हिन्दी रंगपरिवेश को इसकी जानकारी भी नहीं है। जैसे गिरीश से वरिष्ठ नाटककार बादल सरकार बांग्ला में लिखते थे और अनुवाद हिन्दी में होता था। लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में जब उन्होंने तीन खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी 'पुरोनो काशुन्दी' तो न इसकी जानकारी अभी तक हिन्दी परिवेश को हो पाई है न बांग्ला परिवेश को ही। गिरीश की भाषा सम्बन्धी ये सब बातें मुझे पहली बार उसी पहली बातचीत से पता चली थीं। उन दिनों वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक परिषद् के सदस्य भी हुआ करते थे। इस नाटक का बंगलोर के ही रंगमंच पर उसी वर्ष मंचन हुआ। मंचन कन्नड़ में 'ओडाकलु बिम्ब' नाम से हुआ और निर्देशन भी उन्होंने ही किया। यह नाटक अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक पर है। नाटक का सेट एक टीवी स्टूडियो का है और इसमें सिर्फ एक महिला चरित्र है जो अंग्रेजी की प्रोफेसर है और कन्नड़ में लघु कहानियां लिखती हैकाफी कुछ लिखने के बावजूद जब वह पाती है कि वह अपरिचय की स्थिति ही जी रही और सफल नही है तो वह अंग्रेजी में लिखने लगती है और बेस्ट सेलर हो जाती है। उसके बारे में विभिन्न स्क्रीन पर परिचर्चा तो कभी साक्षात्कार आने लगते हैं लेकिन वह पाती है कि स्क्रीन पर उसका चेहरा खुडत है। इतनी कहानी सुनाने के बाद गिरीश बताने लगे - 'नाट्यशास्त्र में दस प्रकार के रूपकों का उल्लेख है जिसके अनुसार ही भारत में नाटक लिखे जाने चाहिएइन रूपकों में से एक है भाण। यह नाटक उसी रूपक में लिखा गया है। यह एकल अभिनय उस प्रथम प्रस्तुति में अन्धति नाग ने किया था। यह नाटक आत्मकथात्मक है और यह एकांकी है।'
पहली बातचीत में उनके नाटकों को लेकर ही देर तक बातें हुई थीं लेकिन वे व्यक्तिगत अधिक होती गई थीं। उनका फिल्मों में विभिन्न भाषाओं में अभिनय करना, रंगकर्म के बारे में सोचना, संगीत नाटक अकादमी से जुड़ना और निजी अनुभवों का अतीतरागात्मक संस्मरण उस बातचीत के केन्द्र में आ गए थे। उनके तक। सम्पूर्ण लेखन की क्रमशः विकसित होती गयी प्रक्रिया या विकासक्रम, रचनाशीलता के अनिवार्य विचार और दर्शन तथा मूल विचार को नितान्त अपनी कलाभाषा देने की आकुलता, ये सब हमारी दूसरी बातचीत के केन्द्र में आ गए जो पिछले साल सम्भव हो सकी जब वे प्रायः ही अस्वस्थ रहे। हमने उनके प्रारम्भिक दो नाटकों 'ययाति' और 'तुगलक' का जिक्र छेड़ा, इस तरह कि सिर्फ वे कहते रहें और हम सुनते रहें। बाद में 'नागमंडल', 'हयवदन', 'तलेडंडा', 'दी ड्रीम्स ऑफ टीपू सुल्तान' और 'अग्नि और बरखा' अन्य प्रसंग बने। हमने सोचा कि वे हमारे छेड़ने से उत्तेजित हो उठेंगे जैसा कि हमें १९९० में कोलकाता के नन्दन परिसर में फिल्म समारोह के दौरान हुई मुलाकात और दिल्ली की उस पहली बातचीत से बनी धारणा के आधार पर लगा था। लेकिन वे शान्त थे। उनके स्वभाव का यह पक्ष मेरे सामने पहली बार उद्घाटित हो रहा था। और यह पक्ष तीन घंटे की उस बातचीत में अन्त तक रहा। या कहें, उनके इस पार्थिव अन्त
मैंने सिर्फ यह कहा था कि आपको नहीं लगता कि नाटक 'ययाति' के रचनासौष्ठव पर विदेशी नाटकों का प्रभाव है? उन्होंने न सिर्फ यह स्वीकार किया बल्कि इस आत्मस्वीकार के साथ उन्होंने यह भी बताया कि किन लेखकों से वे उन दिनों प्रभावित थे और किन नाटकों का प्रभाव इस नाटक पर है। वे बोले, 'जिन दिनों मैं ययाति लिख रहा था उन दिनों में यूरोपीय नाटककारों से विशेष प्रभावित था। मुख्य रूप से सार्च और कामू से। सात्र के 'दी फ्लाइज' और 'नो एग्जिट' तथा कामू के 'क्रॉस पर्पज', 'कैलिगुला', 'दी जस्ट ऐसेसिन्स', 'दी पजेस्ड' एवं 'रिक़ाएम फॉर ए नन' मेरे पास और मेरे साथ रहते थे सदैव। उन दिनों मुझ पर ही नहीं, लगभग प्रत्येक भारतीय लेखक पर इन दोनों लेखकों का प्रभाव रहा करता था। यह १९५८ के बाद की बातें हैं जब मैं बीस इक्कीस साल का हुआ करता था। कामू के मिथ ऑफ सिसिफस या आउटसाइडर या दी फॉल या फिर सार्च के नॉसिया से ही मेरा जेहन बन चुका था। १९६० में ऑक्सफोर्ड गया था पढ्ने। ययाति के पूरे लेखन स्वरूप में यूरोपीय लेखकों के नाटकों का फॉर्म स्पष्ट झलकता है। यह मेरा दूसरा नाटक था। पहला नाटक कन्नड़ में लिखा था 'मा निषाद'। यह एकांकी था। लौटकर १९६४ में मुझे लगा कि भारतीय परिवेश पर कोई ऐतिहासिक नाटक लिखना चाहिए जो गैंड स्केल यानी व्यापक स्तर के परिवेश पर लिखा जाए जिसमें कम से कम पचास चरित्र हों। तो मैंने लिखा 'नाडेड बंडा डरि' यानी तुगलक। इस नाटक को कई निर्देशकों ने मंचस्थ किया जैसे इब्राहिम अल्काजी, मनोहर सिंह, बी वी कारन्त, दिनेश ठाकुर और श्यामानन्द जालान। कारन्त जी ने ही इसका हिन्दी अनुवाद किया था। श्यामानन्द जी ने इसे बांग्ला में किया। दिल्ली नाट्य विद्यालय में पहली बार यह १९६५ में मंचित हुआ था। तब तक मुझे यह अहसास नहीं था कि लेखन आत्मसंवाद को साझा करने का उत्कृष्ट माध्यम है। उस उम्र में आत्मसाक्षात्कार का भारतीय दर्शन नहीं, अस्तित्ववाद के प्रति सात्र और कामू की दृष्टियां थीं। कामू तो तब तक काफी मेटाफिजिकल हो गए थे लेकिन सात्र पूरी तरह माक्र्सवादी विचारधारा और कीर्केगार्ड के अस्तित्ववादी दर्शन को अपने आचरण में ढाल चुके थे। पूरी दुनिया उन्हें सुन रही थी। पश्चिम बंगाल में वामपंथ था और नक्सली प्रवृत्तियों ने भी उसी यानी साठ के दशक में ही सिर उठा ली थी। इतिहास से चरित्रों को लाने की मेरी भूख तो तृप्त हुई लेकिन फिर भी तृप्ति नहीं मिली। एक बेचैनी हमेशा चलती रहती थी। पच्चीस से पैतीस साल की उम्र में भारतीय युवा रचनाओं में भी ऐसे ही सोचता है। श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविन्दन, शाजी करुन आदि उसी दौर में बड़े हो रहे थे लेकिन बांग्ला में रंगकर्म कला और विचार दोनों ही स्तरों पर शीर्ष पर था। मराठी, गुजराती और दक्षिण में उसी का प्रभाव बन रहा था। तब तक सत्तर का दशक शुरू नहीं हुआ था। साठ के दशक में असन्तोष, अस्वीकार, प्रतिरोध और प्रतिवाद में मुक्ति का स्वर ढूंढने की परिपाटी विकसित हो चुकी थी। यह मैं सिर्फ नाटकों की बात कर रहा। हिन्दी फिल्मों की नहीं। हिन्दी रंगकर्म तो था ही नहीं, यानी आधुनिक हिन्दी रंगकर्म की रूपरेखा तब तक बनी नहीं थी, बन रही थी और अल्काजी के साथ बन चली थी। वहीं से हिन्दी रंगकर्म दिखने भी लगा। साठ और सत्तर के दशकों में ही हिन्दी में सर्वाधिक और उत्तम नाटक लिखे और खेले गए। अन्यथा हमारे पास सिर्फ बांग्ला रंगकर्म था और वह भी शिशिर कुमार भादुड़ी का। वे टैगोर के लिखे नाटक कम प्रस्तुत करते थे। शम्भू मित्र ने अधिक प्रस्तुत किया। आपको बुरा लग सकता है यदि मैं कहूं कि टैगोर एक महान कवि थे लेकिन नाटककार वे दूसरे दर्जे के थे यानी मिडियाकर। यही बात मैंने पिछले दिनों कही तो बांग्लाभाषियों को बुरा लगा...'
'आपने उनका नाटक राजा' पढ़ा है?' - मैंने पूछा।
'देखा था। वही शम्भू मित्रा का। बाद में पढ़ा भी। लेकिन मेरी धारण अभी तक नहीं बदल सकी है। उन्हें सिर्फ कविता लिखनी चाहिए थी'
'इसमें जनसंघर्ष है लेकिन इससे पहले आत्मसाक्षात्कार की तैयारी। और आप अभी नाट्यशास्त्र की बात कर रहे थे। भरत ने नाटकों को कविता और रंगमंच पर इन कविताओं के मंचन को दृश्यकाव्य कहा है। यानी नाटक दृश्यकाव्य हैं। तो टैगोर ने भरतअर्थ में नाटकों के रूप में कविताएं ही तो लिखी हैं...'
'हो सकता है' - गिरीश बोले - 'मैंने पिछले दिनों यूनेस्को को अपना वर्ल्ड थियेटर डे मैसेज भेजा था जो २००२ में २७ मार्च को दुनिया भर में जारी हुआ था। उसमें मैंने रंगकर्मियों को यही कहा था कि वे साहस के साथ रंगकर्म तो करें ही, जो सही नहीं है उसे साहस के साथ कहें भी कि यह गलत है। किसी कवि का नाम हो जाए और उसे नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो ऐसा नहीं हो जाता कि वह जो भी लिखेगा या जिस भी फॉर्म में लिखेगा वह उत्कृष्ट होगासार्च को भी मिला था नोबेल सम्मान और उसे लौटा दियाथा...'
'इसलिए कि उन्हें साहित्य के लिए मिला था। वे दार्शनिक थे। और उन्हें दर्शन के लिए दिया जाना था ...
'लेकिन उनके नाटकों में उनका दर्शन ही तो है' - वे बोले- 'नाटकों में लेखक का दर्शन या विचार या फिलोसॉफी ही तो होता है। क्या ययाति या तुगलक में कोई विचार नहीं? या बाद में सत्तर के दशक में मैंने हयवदन लिखा तो क्या उसमें कोई सन्देश या विचार या दर्शन नहीं?
'ययाति की कथा महाभारत में है और हयवदन की कहानी पुराण में है। स्वाभाविक है दोनों नाटकों में भारतीय दर्शन ही तो है - मैंने स्पष्ट किया।
'एग्जैक्टली, यही तो मैं भी कह रहा' - गिरीश संतुष्ट हुए। वे काफी कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन मानो जुबान को कोई रोक रहा था। मुख्य रूप से देह में पनप चुकी कोई बीमारी। वे रुक-रुक कर बोल रहे थे। बाद में उन्होंने बताया भी कि यदि प्रवाह में कोई कठिन शब्द आ जा रहा और उसे बोलने में वे दिक्कत महसूस कर रहे तो वे उसकी जगह बोलने के लिए कोई आसान शब्द चुन ले रहे जैसे फ्लावर की जगह लीफ। वे जाहिर है अंग्रेजी में बोल रहे थे - 'साठ के दशक के अन्त या सत्तर के आरम्भ तक मुझे यह समझ आ गया था कि मुझे अपना भारतीय अर्थ में मौलिक फॉर्म नाटकों में ढूंढ़ लेना है और रचनाप्रक्रिया को अनुभव आत्मसंवाद या आत्मसाक्षात्कार के स्वाद में बदलना चाहिए। तभी मुझे तृप्ति मिल सकेगी। लेकिन ऐसा मैं कर तो रहा था पर पूरी तरह कर नहीं पा रहा था। सत्तर के ही मध्य तक मैं फिल्मों में अभिनय भी करने लगा जिसकी परिणति देवआनन्द के साथ की फिल्म मनपसन्द हुई। मैंने उसे इसलिए स्वीकार किया था क्योंकि यह बर्नाड शॉ के माई फेयर लेडी पर बन रही थी। अस्सी और नब्बे के दशकों में मेरे सामाजिक सरोकार बहुत बढ़ा दिए गए जब मैंने संगीत नाटक अकादमी ज्वाएन किया। दो बातें तब भी मेरे जेहन में चहलकदमी कर रही थीं भले ही में एक प्रकार से सफल था। एक अपने मौलिक नाट्य फॉर्म तलाशने की जिजीविषा जो अपने दोस्तों के अनुसार मैंने ढूंढ ली थी। अब रह गई थी अपने साथ संवाद यानी आत्मसाक्षात्कार स्थापित करने की जिजीविषा। वह नब्बे के दशक तक या कहें २००५ तक नहीं स्थापित हो सका। तब मैंने सोचा क्यों न आत्मकथा लिखें। कन्नड़ और अंग्रेजी में लिखता हूं। अपने ही जीवन को लिखें। फिर यह कौंधा कि क्यों न इस विषय पर नाटक ही लिख डालें। और तब मैंने वह नाटक लिखा जो आपने भी देखा हैकन्नड़ समझने में दिक्कत आई होगी।'
'नहीं। रंगभाषा सशक्त थी' - मैंने कहा। लेकिन कन्नड़ में असफल लेखिका का अंग्रेजी में सफल हो जाने के बाद आईने में अपने दरकते या खंडित हुए चेहरे को देखकर यथार्थ को समझ पाना या विभाजित मन की नियति को त्रासदी के तौर पर लेना कि वह सफल हो सकी अपनी भाषा में नहीं बल्कि विदेशी भाषा में तो पश्चाताप और आत्मग्लानि से भरा मन उसके लिए आत्मसाक्षात्कार का सोपान तो नहीं बन सका, यह मैंने नहीं कहा। किन्तु गिरीश जारी थे -
'इस नाटक के साथ अन्ततः आत्मसंवाद स्थापित हो सका। मैं तृप्त हुआ। अवार्ड, पुरस्कार और सम्मानों से लेखक तृप्त नहीं होता। आत्मसाक्षात्कार ही एकमात्र मार्ग है। एक प्रशस्त मार्ग। प्रकाश से भरा। काश मैं एक और नाटक या नाटक नहीं तो कुछ और लिख सकता। लेकिन मेरी देह जीर्ण होती चली जा रही। और अब मैं मृत्यु की तरफ हूं। जीवन का क्लाइमेक्स। वृद्ध ययाति को और जीना था। संसार को भोगने की इच्छा और बढ़ी तो उसने अपने बेटे की युवा देह ले ली। मैं क्या करु! ऐसा नहीं कि मैं मिडियाकर रहा हूं। मैंने भी सोचा है मृत्यु पर। और वर्षों तक सोचा है। इसीलिए लिखा अग्नि और बरखा या तलेडंडा लेकिन मृत्यु तो फिर भी हैभय फिर भी है। मृत्यु से साक्षात्कार ही मेरी परिणति है। मृत्यु से मुक्ति नहीं' 1
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