जयजयकार
औरों के समेटने पर मनुष्य आरम्भ करता है अपना कार्यक्रम
रात समेटती है अंधेरा, मनुष्य आरम्भ करता है दिन
चिड़िया समेटती है गान, फूल समेटता है फूल
मनुष्य का आरम्भ होता है अंतहीन फूल का गान।
सूरज जब समेटकर जाने लगता है रोशनी
मनुष्य जलाता है दिया, मनाता है संध्या का उत्सव
जब हवा समेटती है हवा, मनुष्य बनता है हवा प्रचंड अभिमानी
आंधी पुराने को नेस्तनाबूद करने वाली
युद्ध जहां समेटता है युद्ध-वहीं से शुरू होती है शांति
उखाड़कर घूमता है सीने का अस्त्र,हृदय में गाड़ा गया माइन
सब कुछ खत्म कर मनुष्य बनता है स्व-महीयान
मनुष्य का यह पुनः आरम्भ करने का अन्वेषण
मनुष्य का यह समेटने के बाद नहीं समेटने का आयोजन
सभ्यता की परमायु
जीवन विलासी पताका की जयजयकार।