कविताएं -एक दिन बच्चों के एक झुण्ड के बीच - नीलकांत सैकिया की असमिया कविताएं

एक दिन बच्चों के एक झुण्ड के बीच


 


तुम लोगों की आवाज में मैं फूल की आवाज सुनता हूँ,


तुम लोगों की हंसी में मैंने अपनी समस्त संकीर्णता


फेक दी है।


 


तुम लोगों के ख्वाब में मैं ख्वाब बनकर खिला हूँ


समस्त अन्धता, दु:ख, हताशा मन से बाहर निकाल चुका हूं।


तुम लोग मेरा हाथ थाम कर स्मृति के बीच


सैर करवा रहे हो


तुम लोगों ने मुझे गाना सिखाया है जीवन का गान।


 


तुम लोग जो करने के लिए कह रहे हो मैं वही कर रहा हूँ।


मैं तुम लोगों का एकांत अनुगत बन गया हूँ


 


तुम लोगों के होंठों पर मैं मुस्कान बनकर दमक रहा हूं।


मेरी आंखों में तुम लोग भविष्य बनकर कौंध रहे हो।


 


तुम लोगों की गंध से ही मैं महक रहा हूं।


तुम एक-एक बच्चे हो एक-एक फूल


मैं स्पर्श करता हूं।


 


याद रह जाने लायक शिशु बनने का यह दिन


मैं उत्सर्गित करता हूँ तुम लोगों के लिए,


खैरियत से रहो तुम लोग खैरियत से रहो तुम लोग।


 


करीब रहकर भी नहीं दिखने पर आदमी बुझ जाता है।


कितनी दूर जाने के बाद नहीं दिखता है आदमी


करीब रहकर भी नहीं पाता ही प्रियजन के अपनेपन की गंध


 


करीब रहकर भी नहीं दिखने पर


आदमी बुझ जाता है।


आदमी नहीं जानता कितना बुझने पर बुझता है अतीत सम्मोहन।


 


आदमी जी-जीकर मरता है।


मरकर भी नहीं मरता,


सुलगती आग के बीच नहीं मरने वाला


बैठा रहता है।


 


आदमी राह ढूंढते हुए ही धरती की तरफ आता है। यहां आकर


गुमराह होकर


किसी तलाश में भटकता फिरता है।


आदमी-वही आदमी नहीं जानता वह कितना ताकतवर है।


आदमी आधा देवता आधा जानवर


प्रेम और विषाद का उपासक