द्वार
जिस द्वार को लांघकर एक दिन दादा जी
चले गए थे
उसी द्वार के नीचे अभी मेरे पिता बैठे हुए हैं
उनके दांत टूट गए। बाल झड़ गए
लकीरों से भरपूर मुखावयव।
उनकी उंगलियां सूखी
दृष्टि सीमाबद्ध
वे खुद को भूलते हैं।
अपनी पगथली को भूलते हैं।
एक आकाश था क्या भूलते हैं।
हां, उनका एक आकाश था
अपनी एक राह थी
एक दिन हाथ पकड़कर मुझे चढ़ा दिया था
उस राह से आई बस में
बस मुझे नाना स्थानों तक ले गई
सुख दिया, दु:ख दिया
एक विस्तृत जगत दिया
कविता से परिचित होने के लिए उत्साहित किया।
बस ही एक दिन मुझे लौटाकर ले आएगी पिता के
सुख दिया, दु:ख दिया
एक विस्तृत जगत दिया
कविता से परिचित होने के लिए उत्साहित किया।
बस ही एक दिन मुझे लौटाकर ले आएगी पिता के
द्वार तक
बस की सीटें तब तक सड़ जाएंगी
इंजन भूल जाएगा अपना नाम।
मेरे शरीर पर झुर्रियां उभर आएंगी
कदम एक लाठी को ढूंढेगे
उदास दृष्टि से प्राचीन सपनों को देखूगा
पुराने कैसेट बजाने की आदत डालूंगा।
मेरे करीब लड़के-लड़कियां नहीं रहेंगे
मेरी गोद में पोते नहीं बैठेंगे
द्वार के नीचे बैठकर मैं सिर्फ सिसकेंगा
क्योंकि, उस द्वार के नीचे बैठने वाले का
तन्हा हो जाना ही एक नियम है।