कविताएं - आग का जन्म - सुभाष राय

 


आग का जन्म


 


जब कुछ नहीं रहा होगा


तब भी रही होगी आग


बिग-बैंग के ठीक पहले


कुछ नहीं से बहुत कुछ


होने की संभावना में


एक चिनगारी गिरी होगी कहीं


और समय के रूप में धधकती हुई


बढ़ चली होगी भविष्य की ओर


 


उष्मा के गर्भ से फूटा होगा जीवन


मनुष्य भी जन्मा होगा आग से ही


मां के स्तनों से दूध बनकर बही होगी आग


आदमी को आग तक ले गई होगी आग


 


वह भाग रहा होगा शिकार के पीछे


पांव से टकराकर एक पत्थर गिरा होगा दूसरे पर


उसके दिमाग में बिजली की तरह


कौंध उठी होगी रोशनी


और भीतर की आग बाहर भी जल उठी होगी


 


आग से जन्मी होगी भूख


फिर भाषा, फिर संस्कृति


आदमी ने ठहर कर देखा होगा चारों ओर


इन्द्रधनुष, बादल, तारे


मछलियाँ, सीपियां, मंगे


ज्वालामुखी, भूकम्प, तूफान


 


आग ही आग चारों ओर


कहीं लुभावनी, कहीं डरावनी


सुंदर, सर्वांग सुंदर


कहीं मिटाती हुई, कहीं रचती हुई


 


उसे लगा होगा, वह सोच सकता है


और पहली बार वह सोचने लगा होगा


उसके भीतर उतर


आई होंगी अनगिन दुग्धगंगाएं


आकाश हो गया होगा उसका दिमाग


 


मैंने एक रंग देखा


मैंने एक रंग देखा


उगते हुए सूरज में


अंकुराते बीज में


पेड़ों की फुनगियों में


खिलने को तैयार कलियों में


मैंने एक रंग देखा


कड़कती बिजलियों


और ज्वालामुखियों में


 


मैंने एक रंग देखा


गरम लोहे में


 


इसी से मैंने जाना


कि उष्मा का एक रंग होता है


कि आग नहीं होती


तो स्वप्न नहीं होते


स्वप्न नहीं होते


तो प्रेम नहीं होता


 


इसी से मैंने यह भी जाना


कि ताप ठीक-ठाक हो


तो ढाले जा सकते हैं


नई दुनिया के खूबसूरत सपने


 


सच मानिये मैंने जहां भी


कुछ बदलता पाया 


एक ही रंग देखा बार-बार


क्या आप ने भी देखा?