कविता -    ऐसे वक्त में  - लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता 

 


ऐसे वक्त में


 


इस गाढ़े होते सन्नाटे में


चुभ रही है


तुम्हारी याद


गोया कल के अपराधों की


सजा मुकर्रर की हो


तुमने


नदी बरसाती जिस्म ओढ़े


जितना ही भिंगो रही है मिट्टी को


देह उतनी ही शिद्दत से


पानी-पानी पुकार रही


आसमान किसी शख्स के


गंदे हो चुके कपड़े को फचीट रहा


और उसमें लिपटा हुआ नमक


धरती पर पसरता जा रहा


कुछ जवान होती हुईं लड़कियाँ


निकली हैं घर से


नमक की तलाश में


और बूढ़ी आँखों का


काजल हो गईं हैं


कुछ बच्चे


हथेली में भर रहे हैं पानी


अपने जवान दिनों के लिए


उधर दूसरी तरफ़


किसी घर से उठ रहे धुएँ में


जलती मिर्च की झाँस शामिल है


कोई औरत नजर उतार रही है


दहलीज़ पर पाँव रख रहे


वक्त का


और ऐसे ही बचे-अनबचे


बहुत-सी होनी-अनहोनी के बीच


तुम्हारी अपेक्षाओं-उपेक्षाओं में


मेरी दुनिया


साँस ले रही है.....!


                                                      


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