कहानी - अंत: उज्ज्वला - डॉ. उषा वर्मा

डॉ. उषा वर्मा - जन्म : 26 जनवरी 1953 प्रोफेसर नालंदा महिला कॉलेज, बिहार शरीफ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित। 


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ठक्, ठकू, ठकू, ठकू। ठक् ठकू की यह आवाज रह रह चाँदनी में नहाई रात्रि की सम्पूर्ण नीरवता को ही कला के अभिनव रूप में ढाल देना चाह रही थी। कलाकार की एकाग्रता, सृजन की निष्ठा, लगन, अपूर्व थी, देखने लायक! हॉस्टल के पीछे कॉरीडोर में खड़ी तन्वी सांस रोककर यह दृश्य देख रही थी। दुधिया चाँदनी में चमकता आदमकद प्रस्तरखंड नारी देह में परिवर्तित होता जा रहा है। कलाकार की छेनी-हथौड़ी की प्रत्येक चोट से वह आकृति रूप ले रही थी। वह नारी मूर्ति कलाकार के हाथों विवश थी, वह चाहे जैसा गढ़ दे, जिस रूप में ढाल दे, वह तो कलाकार के हाथों ही प्राणवंत होगी ना। यह ठक् ठकू उसकी सांसों की तरह उसके भीतर संचरित हो रहा था। वह क्या करे? बेचैनियों का समन्दर उसे डुबाता-उतराता लहराता चला जाता हैकला भवन के छात्र-छात्राओं का गूंजता गीत-'आजि बशन्त एलो बने-बने....' थोड़ी ही देर पहले शमित हुआ है। कला भवन के हरे-भरे पेड़ों, विस्तृत झाड़ियों और कलाकारों के झुंडों में बसन्त लहराता है, कंठ फूट पड़ते हैं, विभिन्न गीतों में। अन्तर की मधुरिम अनुभूति अनायास ही अनुरूप शब्दों में ढल गीत बन जाती है। लगता है उसे किसी बसन्त, किसी ग्रीष्म, किसी पतझड़ का कोई आभास नहीं। वह तो अनवरत अपना काम कर रहा है। कैसा है यह विप्लव दा? उस दिन भी ऐसी ही रात थी। सर्वत्र शून्य सन्नाटा! लेकिन एक आदमी लगातार अपनी छेनी हथौड़ी से मूर्ति बनाने में तल्लीन है। एक बड़ा सा जलता लाइट उसे रोशनी दे रहा है, वह बिना थके पत्थर काट रहा हैं। वह उत्सुक हो वहाँ खड़ी हो गई थी। तबसे रात में जैसे ही ठकु ठकु सुनती, वह भागकर आती और खड़ी हो जाती। एक दिन सीढ़ियों से उतरती शेफालिका दी ने उसे देख लिया था। बोली, 'किसे देख रही है? उस पगले कलाकार को? किसी दिन देख लेगा कि उसे कोई देख रहा है तो इस हॉस्टल में घुसकर तुम्हें गालियाँ देगा। तुझे मारेगा। पागल है पागल! बहुत मेरिटोरियस है, पेरिस से डिग्री लेकर आया है, लेकिन सोशल बिल्कुल नहीं। सब उससे डरते हैं, कब कहाँ उखड़ जाए! तुम अपने कमरे में जाओ।' लेकिन तब भी वह मानती नहीं थी। अभिमंत्रित सी ठक् ठकू सुनते ही बाहर निकल ओट में खड़ी हो जाती। इस कलाकार की तल्लीनता उसे बहुत प्रभावित करती थी। वह अपने स्केच और पेंटिंग में वैसी ही दत्तचित्तता से खोना चाहती थी। हमेशा असफल ही होती थीयह आवाज उसमें बल भरती थी। वह नए उत्साह से अपने चित्रों में रमने की कोशिश करती। पता नहीं क्यों, प्रेरणा की एक डोरअनायास ही उसे बाँध चुकी थी।


    एक दिन जब वह मेस में पहुँची, कोलाहल सुन बातें समझने की कोशिश की। एक लड़का मेस के खाने के विरोध में चिल्ला रहा था- 'यह दाल है, सिर्फ हल्दी और पानी? यह भात है, सिर्फ कंकड़! यह रोटी, धूल सनी। जानवर भी नहीं खा सकता। हॉस्टल मैनेजमेंट क्या देखता है? सब पैसे बटोरने में लगे हैं। मैं वाइस चांसलर से शिकायत करूंगा, चीफ मिनिस्टर, प्राइम मिनिस्टर तक जाऊँगा!' ठन-ठन चटाक-पटाक बर्तन फेंके जा रहे थे। कुछ लोग रोक रहे थे, कुछ साथ दे रहे थे, कुछ मना रहे थे उस छात्र को। चौड़ा माथा बढ़ी दाढ़ी, कुर्ते पाजामे में आग बोता वह लड़का क्रोध का अंगार बना था। एक अच्छा खासा तमाशा खड़ा हो गया था।


    अरे, यह तो विप्लव दा हैं। उसके मुँह से बेसाख्ता निकला।' उसे याद आया, अपने स्कूल में वह विप्लव दा को कितना चिढ़ाती थी! स्केचिंग के जादूगर विप्लव दा, रंगों के बाजीगर विप्लव दा? उसने पहचाना, यह विप्लव दा ही हैं जो रात के सुनसान में मूर्ति बनाया करते हैं! विप्लव दा तो मेरे अपने हैं, मैं उनसे कभी नहीं डरूंगी।


    पाँच वर्षों में बहुत कुछ बदल गया। अब कोई अपना परिचित नहीं दिखता। तन्वी स्कूल फाइनल करने के बाद पाँच वर्षों बाद यहाँ लौटी है। उसने आर्ट कॉलेज के प्रथम वर्ष में नामांकन करवाया है। चित्रांकन में उसकी रुचि है, प्रतिभा भी है, पापा कहते हैं। पापा चाहते हैं कि वह कला के माध्यम से अपनी प्रतिभा को विकसित करे। पापा कला के महत्व को अच्छी तरह समझाते हैं, बेटा 'कलाकार में साक्षात् ईश्वर बसता है, अपनी कला साधना से उसे ईश्वर को रिझाना पड़ता है। जितना ही कला बोध सघन होता है, कला सृजन में अलौकिता आती है, ईश्वर की निकटता से मन के विकार दूर होते हैं, कला निखर कर ईश्वर का दर्शन करा देती है।' पापा बहुत कुछ सिखाते हैं, बताते हैं, पापा की बातों का वह अक्षरसः पालन करती है। उसके भीतर जब भावनाओं की तरंगे उठती हैं, वह रंगों के माध्यम से उन्हें रूपायित करना चाहती है। अपनी अनुभूतियों को किसी भी माध्यम से, रंग हो या शब्द वह पकड़ना चाहती है, उतना ही जीवंत बनाना चाहती है, जिससे मर्म झंकृत हो सके। वह प्रकृति के रेखांकन के लिए, जनजीवन के चित्र के लिए दूर-दूर तक बाहर निकल जाती है कभी संथाल बस्ती, कभी कोपाई नदी की क्षीण धारा के किनारे-किनारे लाल मिट्टी और ताड़ वृक्षों की शोभा आँकते वह मन्त्र मुग्ध आगे बढ़ती जाती है, किसी बस्ती में किसानों और व्यवसाइयों के अनवरत परिश्रम को भी चित्रित करती हैजब विभोर मन सही-सही विषय को पकड़ नहीं पाता जब उन्हें शब्दों में बाँध लेती हैंइसे तो पापा ने ही सिखाया है- स्केच बुक और नोट बुक दोनों साथ-साथ रहना चाहिए। शाम उतर आई हैशाम के धुंधलके पर काले रंग का ब्रश फिर गया है, जल्दी ही शाम रात में बदल गई। रोज की दिनचर्या में आज अधिक उल्लास था। पत्थरों का यह तल्लीन कलाकार उसका परिचित था।


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    मौसम खुल गया था। धरती ने रंग-बिरंगे फूलों से रंगों का साम्राज्य बिछा दिया था। मखमली हवा बेरोक-टोक धरती को मुखरित कर रही थी। तल्लीन कलाकार इन मृदुल अहसासों से दूर अपने अन्तस की पुकार को, अपनी वेदना को पूरी तरह इन आँखों में ढाल देना चाहता था। आज वह मूर्ति को पूरा कर लेगा। सिर्फ आँखों को तराशना बाकी है। वही आँखें सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अकथ कहानी को कहने वाली हैं। उसने एक बार फिर से मूर्ति को देखा। उज्वल देहयष्टि, निर्मल वस्त्र शोभित आकाश की ओर देखती कातर दृष्टि, एक हाथ कमर के नीचे वस्त्र छूते हुए, दूसरा हाथ कंधे पर, मजबूती से स्वयं को समेटते हुए, जीवन के विलक्षण उहापोह में डूबी बेपनाह दर्द को बताती सुन्दर आँखें। वह पूरी तरह सचेत, एकाग्र, ध्यानावस्थित, सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से कला की बारीक तहों में डूब रहा था कि किसी ने ध्यान भंग कर दिया। ''विप्लव दा, इन आँखों में अन्तर्वेदना नहीं, उल्लास भर दो।'' घिघियाती आवाज ने उसे छूने की कोशिश की मैं आपके हाथ जोड़ती हैं। विप्लव दा, मेरी बात सुनिए, प्लीज''


      ''.........।''


    “यह अन्त:तपा नहीं, अन्तः उज्वला होगी। इसका दुख नहीं, इसका असीम सुख इन आँखों में दिखाइए। संसार के सुख बोध से भरपूर बिहँसती आँखें।


      ''.........।''


    'इन आँखों में जीवन का अलौकिक अर्थ जानने की स्मिति होगी। आप इसकी हत्या नहीं कर सकते। मैं जानती हूँ आप क्या करने वाले हैं, मैं आपको वैसा नहीं करने देंगी। यह अमर शिल्प दुख को नहीं सुख को व्यक्त करेगा।'' तन्वी ने विप्लव का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर मोड़ लिया, “मैं आपको वेदना से भरी आंखें नहीं बनाने दे सकती। आपने हृदय की असीम वेदना को हृदय के अलौकिक उल्लास में बदलकर कला के सृजन को ताकत दी है, उसे इन आँखों  में डालिए।''


      ''.........।''


    “आप बोलते क्यों नहीं, क्यों मेरी जान लेना चाहते हैं? आप मेरी खुशियाँ क्यों नहीं देखते ? मैं इन आँखों में खुशियों के निर्झर देखना चाहती हूँबोलिए, बोलिए विप्लव दा! तन्वी ने विप्लव को झिंझोड़ डाला। उसका आतुर व्याकुल चेहरा विप्लव को और कुछ तराशने के लिए आमंत्रित कर गया। तन्वी का हर चेहरा, हर क्रिया-प्रतिक्रिया विप्लव को कुछ रचने को मजबूर कर देता है।


    ''विप्लव दा, बोलिए ना। पत्थरों को तोड़ते-तोड़ते खुद भी पत्थर हो गए?''


    ''मैंने जिस सत्य को देखा है, उसे ही दिखा रहा हूं।' विप्लव ने बिना किसी उत्तेजना के शांत भाव से कहा।


    “लेकिन जिस सत्य को दिखाया, उसके विपुल भंडार को उसकी जोत को इन आँखों में दिखाइए।''


    “मैं उसे नहीं जानता।''


    “मैं जानती हूँ। मेरी आँखों में वह आलोकित है तभी तो जी रही हूँ, विप्लव दा। आपने मुझे जीने का सम्बल दिया है। मेरी मरूभूमि में शादल निर्मित किया लिए है आपने। इसकी आँखों में हौसले हैं, हृदय में भावनाओं की अजस्र धारा। उसे उदास मत होने दीजिए, हर्षोल्लास से प्रदीप्त कीजिए। = विप्लव दा! आप सुनते क्यों नहीं, ' समझते क्यों नहीं?'' उसने मूर्ति को फिर निहारा। विह्वल हुई। बेचैन हुई, बोली, “इसके दमकते चेहरे पर उदासी की कोई रेखा नहीं खींचिए। कितनी सुन्दर मूर्ति है, जीवन की एष्णा से भरपूर। बहुत एपीलिंग, बहुत एलाइव।'' ''तन्वी, तुम अपना काम करो, मैं अपना काम कर रहा हूँ। तुम्हें मेरे काम में कोई दखल नहीं देना चाहिए।'' विप्लव ने बहुत कड़े शब्दों में तन्वी का विरोध किया। उसके चुने हुए मोटिव को बदलने का क्या हक है तन्वी को? वह इस मूर्ति की आँखें जीवन के अनुराग में डूबी देखना चाहती है। विप्लव भी तो यही चाहने लगा था। प्रयत्नों का एक लम्बा इतिहास उसे क्षत- विक्षत करता आया है। वेदना की अनन्त मूच्र्छनाओं को वह अभिव्यक्त करना चाहता है, मन मथकर, देह धुनकर, हृदय का रेशा-रेशा बुनकर वह कलाकृतियों में उतार देना चाहता है। इसके अलावे जीने का कोई रास्ता नहीं?


    आप क्या सोचने लगे विप्लव दा? मेरी इतनी बात आप नहीं मान सकते?''


    “ऐसी आँखें में कैसे बना सकता हूँ जिसे मैंने देखा ही नहीं? तुम यहाँ क्यों आई हो? मेरे सामने से चली जाओ''


    “मैं नहीं जा सकती।'' कठोरता ने कठोरता को काटने की कोशिश की।


    "जाओ।''


    **मैं नहीं जाऊँगी।''


    ''मैं तुम्हारी सनक को नहीं बरदाश्त कर सकता! मुझे डिस्टब्र्ड मत करो। मुझे अपना काम करने दो। तुम चली जाओ अपने रास्ते, जहाँ तुम जा रही हो। तुम खुद समझदार हो, पर मूर्तियां मेरी सच्चाई हैं। इन पर मैं झूठी कल्पना की परत नहीं डाल सकतानहीं डाल सकता। मुझे भ्रमित मत करो। जाओ। हट जाओ मेरे सामने से।'' वह सारे बाँध तोड़ चिल्ला पड़ा। विप्लव का ऐसा रूप! ऐसा विप्लवकारी विस्फोट, अपने लिए तन्वी सोच भी नहीं सकती थी। मन ही मन । रो उठी वहस्वयं विप्लव भी नहीं जानता था कि वह तन्वी के सामने . आज आपा खो बैठेगा। तन्वी उसका विरोध नहीं कर सकी, क्योंकि विप्लव के भीतर के दावानल से वह परिचित है। वह सुबक पड़ी। उसे कुछ भी रोकनेटोकने का अधिकार नहीं। धीरेधीरे वह दूर चली गई। धीरे-धीरे पग रखती शून्य हृदया तन्वी पत्थर तराशने के लिए एक और विषय दे गई। पेड़ों की सघन कतार में धीरे-धीरे लुप्त होती एक नि:शब्द, कमनीय स्त्री आकृति ! उसने जब से तन्वी को जाना है, उसके अन्तस की तप:साधना का साक्षात्कार किया है, तबसे और कुछ नहीं सूझा है। संवेदना की अतल गहराइयों को भेदता उसका मन सृजन के लिए निरन्तर नई सतह को छूता गया हैक्या करे, तन्वी उदधि का विस्तार है।


    यादों के रूप में तन्वी के कितने रूप, कितने दृश्य उसकी आँखों में समेटे चले जाते हैं। वह आज से नहीं, बल्कि स्कूल एज से ही तन्वी को पहचानता हैं-शोख, वाचाल लड़की। किसी को छेड़ना, तंग करना इसके बाएं हाथ का खेल था निडर लड़की। दुबली, पतली, आकर्षक नाक नक्श की लम्बी लड़की, जिसमें बंगाल की मसूण लुनाई स्वयं ही उसका परिचय दे देती थी। आम्रवन में एक वृक्ष के नीचे लड़कियों के एक छोटे से झुण्ड ने उसे घेर लिया था- ''विप्लव दा, हमारा स्केच कर दो ना। पहले हमारा स्केच कर दो, फिर कहीं और जाना। यह लड़की पेड़ के ऊपर झट चढ़ गई, अन्य लड़कियां पेड़ को घेरकर खड़ी हो गई। उसे उनका स्केच बनाना पड़ा था। लड़कियाँ बिस्मित, उल्लसित- ''विप्लव दा, तुम तो स्केच के जादूगर हो।'' हँसती खिलखिलाती अपना चेहरा देखती लड़कियां आँखों से ओझल हो गई। उसने राहत की साँस ली।


    उस साल शांति निकेतन में 'दोलोत्सव' की पूर्व संध्या पर आयोजित 'रासनृत्य' देखने वह मैदान में पहुँचा था। एलिस जो साथ की। वह उत्साह-उमंग से भरा, अपनी सभ्यता संस्कृति के प्रति समर्पित एक मुखर वक्ता के रूप में जाना जाता था। प्रो. इब्राहिम ने पेरिस से आई एलिस को भारतीय सभ्यता संस्कृति से परिचित कराने का काम उसे सौंप दिया- “देखना, इसकी जिज्ञासाओं का सन्तोषजनक उत्तर मिलना चाहिए। एलिस बंगाल पर मुग्ध है। उसे 'बंगाल' दिखाओ, आत्मसात कराओ।'' देश की अच्छी-अच्छी चीजें दिखाने के लिए वह पागल रहता था। भारतीय नृत्य एलिस को बहुत पसन्द थे, वह अच्छा समीक्षक भी था। पूरा का पूरा विस्तृत मैदान, सड़क, देश के विभिन्न भागों से आए सैलानियों, छात्र-छात्राओं से भरा पड़ा था। अथाह जन समूह। जगह बनाकर वह एलिस के साथ नीचे बैठ गया। स्टेज पर पूर्ण चन्द्रमा और वृन्दावन की सघन अमराइयों का आभास देकर नृत्य का शुभारंभ हुआ। बोल 'गीतगोविन्द' के थे। सुमधुर सुर ताललय के साथ राधाकृष्ण के अंग संचालन के साथ लास्य अभिव्यक्ति एलिस को भाव विभोर बना गया। वह बार-बार एलिस को देख ले रहा था। वह मुग्ध था। कत्थक के बाद कुचिपुड़ी में राधा-कृष्ण का नृत्य प्रस्तुत हुआ। इस नृत्य ने दर्शकों के बीच सराहना के साथ एक अफसोस भी पैदा किया- राधा ही कृष्ण बनती तो अच्छा था और कृष्ण राधा। 'यही लड़की राधा क्यों नहीं बनी?' किसी ने पूछाएलिस ने उस व्यक्ति का प्रश्न जानना चाहा। विप्लव ने जवाब दिया- लोग कह रहे हैं कि राधा को ही कृष्ण बनना चाहिए था! नहीं, यह चुनाव गलत नहीं है। कहीं-कहीं राधा कृष्ण का यह कानसेप्ट भी है कि राधा कृष्ण से बड़ी है। देखते नहीं यह लड़की छोटी होकर भी कितनी टैलेंटेड है विप्लव । देखा, कितनी स्टेज फ्री है। कौन है यह लड़की, बंगाल ब्युटी? एलिस ने जानना चाहा। स्कूल की लड़कियाँ हैं। शैतान, मुँहफट!'' विप्लव का जवाब था ''मैं राधा से मिलूंगी।'' एलिस ने चहक कर कहा। ''मिल लेना।'' विप्लव ने उसे आश्वस्त किया। ये वही लड़कियाँ थीं जो रोज मेस में जाते हुए उसे देखकर चिड़ियों की तरह चे चें करने लगती थीं। वह पहचान गया था। वही राधा थी। एक दिन जब वह एलिस के साथ मेस से बाहर निकल रहा था, स्कूल गल्र्स का एक छोटा सा ग्रुप हँसता, खिलखिलाता, गीत गाता निकल गया था-


    ''साहब खाए खाना, मेम खाए सेम,


    साहब गाए गाना, मेम खेले गेम, शेम-शेम!


    वही 'राधा' शरारत करती, गाना गाती, फॉक पैंट में चौकड़ी भरती सबसे आगे थी। वे लोग विप्लव और एलिस पर छींटाकसी कर रही थीं। क्या वे लोग एलिस को पसन्द नहीं करती थी? या अपने देश के लड़के के साथ किसी विदेशिनी को घूमने देना नहीं चाहती थीं? मेम के साथ दोस्ती के कारण विप्लव भी 'साहब' बन गया था। कितना व्यंग्य होता था इन लड़कियों के मगज में! बाप रे बाप! सबसे तेज इसी लड़की की बोली हुआ करती थी। मानो गोरी मेम के साथ घूमना इन लड़कियों का अपमान है।


    एक और दृश्य याद आता है, बरबस याद आ जाता है। दोलोत्सव की झाँकी निकल रही थी। हॉस्टल से सजी लड़कियाँ सड़क पर इकट्ठी हो रही थीं। लड़के और लड़कियाँ सड़क के दोनों किनारे नृत्य के विशेष स्टेप्स पर आगे बढ़ रहे थे। सभी आश्रमवासी पीले-पीले वस्त्रों में सुसज्जित। छात्राएँ आश्रम की बनी लाल पाड़ की पीली साड़ी, लाल ब्लाउज में, टेसू-अमलताश के गहनों में सजी, नृत्य करती सड़क पर चलने के लिए तैयार। तभी इन झांकियों को देखने के लिए उत्सुक एलिस को इन लड़कियाँ ने पकड़ लिया था- 'चलिए, आपको भी सजा दें। ऐसे अवसर पर आपको भी यह परिधान पहनना चाहिए।'' कहते हुए इसी लड़की ने एलिस को पकड़ लिया था। एलिस ने विप्लव की ओर देखा था। उसने सहमति दे दी- “जाओ, देखो। तुम्हें अच्छा लगेगा'' लड़कियों ने अपने हॉस्टल में एलिस को खींच लिया। जब वह निकली तो विप्लव उसे पहचान नहीं सका। पीली साड़ी, लाल ब्लाउज, गोरी देह-जूड़े में लिपटा टेसू फूल का हार, गले में अमलतास, टेसू का खिलता हार, कान-हाथ में फूलों के ही आभूषण, पैरों के कड़े भी फूलों के बने।' एलिस के दिव्य रूप को देख वह हतप्रभ रह गया। वह धीरे से आकर कानों में कह गई- विप्लव दा, तुम्हारी शकुन्तला! उसने एलिस को झाँकी में आगे बढ़ने के लिए नृत्य के स्टेप्स भी सिखा दिए और अपने साथ ले लिया। क्या खूबसूरत दृश्य था। सभी बंगाली लड़कियों की तरह एलिस भी ढोल मृदंग की लय पर आश्रमवासियों की तरह नाच रही थी। बहुत खुश थी। जब रंग अबीर उड़ने लगे, तब इस शैतान लड़की ने एलिस की माँग में लाल अबीर भर दिया। कहा, “अब वास्तविक बंगाली बहू'' और लाकर उसके पास खड़ी कर दिया। वह सकते में रह गया। यह जंगली लड़की क्या बोल गई? एलिस ने पूछ लिया झट् कि ये लड़कियाँ क्या कह रही हैं।


    "लड़कियाँ तुम्हें बंगाली बहू बनाना चाहती है।''


    ''मैं किसी बंगाली से शादी करूंगी?''


    “हाँ, लड़कियाँ यही चाहती हैं।'' विप्लव ने कुछ लजाते हुए पर ढीठ की तरह कहा और एक दिन यह बात सच हो गई थी पेरिस में। अब बीते वर्षों के नेगेटिव रोल को वह देखना नहीं चाहता। वह अब अपनी मिट्टी में ही जीएगा, अपनी मिट्टी में ही मरेगा।


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    पाँ-छ: वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। पुराने संगी साथी कहीं नहीं दिखते। अपनी-अपनी राह सभी निकल गए हैं। लेकिन शांति निकेतन की मिट्टी की वह आत्मीयता आज भी अपनी गोद में समेट लेती है, सब कुछ खोकर भी कुछ पा लेने का विश्वास देती है। यहाँ आकर ऐसा लगा, जैसेबहुत दिनों का बिछुड़ा अपना घर मिल गया है। वह यहाँ का विद्यार्थी रहा है और आज शोधार्थी है। अपने पूर्व मित्र बंधु मिले न मिलें, यह मिट्टी, यह पेड़, यह घास यहाँ-वहाँ खड़ी ये सजीव मूर्तियाँ वही तो हैं, उसे पुचकारती, दुलारती उसे हिम्मत देती, सब तो वही हैं। कला भवन में छात्रों की गहमा-गहमी वही है, जो पहले हुआ करती थी, बस चेहरे बदल गए हैं। वातावरण में आधुनिक होता जा रहा है। लेकिन सभी अपनी-अपनी विधाओं में निमग्न है। आम के पेड़ों के बीच स्कल्पचर विभाग का स्टूडियो है जहाँ वह पत्थरों को तराश कर मूर्तियाँ बनाता है। बगल में झोला लटकाए, ब्रश, रंग, इजेल, कैनवास लिए पेंटिंग विभाग के छात्र कुछ ज्यादा ही चुस्त दुरूस्त पाए जाते हैं। एक लड़की सफेद साड़ी में सामने की झुरमुटों में बैठी कभी-कभी पेंटिंग करती है। प्रायः वह अकेली रहती है। आकाश-धरती, आदमी, पेड़, चिड़ियां, बकरी, बिल्ली, मुर्गा, गाएं कुछ भी आँकती रहती है वह।' उसकी तन्मयता उसे अच्छी लगती है। जब देखो सफेद साड़ी, मानों सफेद पत्थर वहाँ स्थापित कर दिया गया हो। कभी भी सहेलियाँ पहुँच जाती हैं तो वह उनके साथ चली जाती है, वरना पेंटिंग में वह खोई रहती है। कलाकार की एकाग्रता इस लड़की में है। वह परखता था उसे।


    कलाभवन का आनंद मेला' सचमुच आनंद से भर देता है। सभी अपना सहयोग पूरे मनोयोग से देते हैंआनंद मेला को देखने के लिए विप्लव एक बच्चे की तरह खुशी अनुभव करता हुआ भीतर आया। वाह, क्या चहल-पहल है। सभी बने ठने मेला देख रहे हैं। रंग-बिरंगे लगे स्टॉल सबके आकर्षण के केन्द्र हैं। कला भवन के छात्रों की उमंगों का क्या कहना, सभी अपने-अपने कला कौशल की प्रदर्शनी में जी जान से जुटे हैं-किसी ने चाय कॉफी का स्टॉल लगाया है, किसी ने चाट मसाले का कमाल दिखाया है। किसी ने तरहतरह की पकौड़ियाँ सजा रखी हैं, कोई रसगुल्ले की हड़िया और सन्देश का ट्रे सजा रहा है। किसी ने अपनी चित्रकारी बिछा रखी है, यहाँ से वहाँ तक। कहीं बाटिक प्रिन्टर्स के कपड़े झूल रहे हैं, कहीं मिट्टी के खिलौने, कहीं लकड़ी के चित्रित शो पीस, कहीं किताबों की दूकानें, कहीं मैगजिन्स की भरमारआकाश छूते दोलन झूले, बच्चों के लिए खिलौने घोड़ों की चकरी-बच्चों से लेकर बूढों तक उल्लास के फव्वारे। कमाल यह कि ये सारे स्टॉल कला भवन के छात्रों द्वारा लगाए गए हैं। एक भीड़ की ओर वह बढ़ा, वहाँ ज्योतिष विधा की नुमाइश हो रही थी। एक लड़की व्यक्ति का चेहरा और हथेली की रेखाएं देख अतीत, वर्तमान भविष्य को किताब की तरह पढ़ रही थी। उत्सुकता से वह उस ओर बढ़ा कि एक आवाज ने उसे रोक दिया- 'विप्लव दा, कॉफी पीजिए।' वह ठहर गयाउसे पहचानने की कोशिश की। कौन है जो मुझे जानता  है।


    “आप मुझे नहीं पहचानते, मैं आपको पहचानती हूँ। मेरा नाम तन्वी है।'' उसने देखा सफेद साड़ी में एक लड़की बड़ी तेजी से कॉफी के प्याले ग्राहकों की ओर बढ़ाती जा रही है।


    “आप नहीं पहचानते। मैं पहचानती हूँ।''


    ''शायद मैं भी पहचानता हूँ। वह ठहर गया। कुछ कौंध गया उसके भीतर। यह वही लड़की है जो 'सुजाता के पास बैठकर स्केच बनाती रहती है। कृशकाय गौतम बुद्ध की जीवनदायी सुजाता जो महान शिल्पी रामकिंकर दा की महान कृति है। उसने कॉफी पी, कॉफी में स्वाद था, देने में सलीका था। कुछ बोलना चाहा पर बोल नहीं सका। यह लड़की उसे शोख, नटखट लड़की से कितनी मिलती जुलती है। वही तराशे हुए नाक-नक्श पर कितने निष्पंद से। दोनों में कितना फर्क है। इसे देख वह वाचाल लड़की याद आ गई। हो  सकता है, उसकी बड़ी बहन हो। वह उसका नाम नहीं जानता था, वरना पूछता आप उस लड़की की बहन हैं। वह अब तक विप्लव को देख हजार प्रश्न पूछ गई होती। उस नतनयन लड़की को उसने दस रुपए का नोट थमाया और चल पड़ामेले में काफी रौनक थी। अपने दिन उसे याद आए। वह भी स्टॉल लगाता था, स्केच बनाने का। लोग उसके सामने खड़े होते, वह दस मिनट में स्केच बनाकर उन्हें थमा देता। सरपट भागती उसकी ऊँगलियों को लोग अचरज से देखते थे। वह हँसता था, खुश होता था। एक व्यक्ति के दस रुपए, सम्मिलित व्यक्तियों के बीच रुपए।


    कला भवन के ऑफिस में एक दिन उसने तन्वी को किसी फॉर्म के लिए पूछते हुए देखा था। फॉर्म नहीं मिला, वह चुपचाप, परेशान सी वहाँ से चली गई। ''कौन है यह लड़की? जब देखो तब सफेद साड़ी। इसे सफेद रंग इतना पसन्द क्यों है?'' उसने कालू दा चपरासी से सहसा पूछ लिया।


    ''विपत की मारी है बाबू। यहीं 'पाठ भवन' की छात्रा थी, पाँच-छ: साल पहले। माँ-बाप की एकमात्र संतान। मैट्रिक पास हुई, सुन्दर घर वर देख शादी कर दी गईलेकिन तकदीर को कौन जानता है? पति किसी कार एक्सीडेंट में गुजर गया। इस दुख में इसके माँ-बाप भी गुजर गए। अब ससुर ही बेटी की तरह इसका पालन-पोषण करता है। यहाँ नाम लिखवा दिया है। यहाँ-वहाँ कुछ आँकती फिरती है, मन लगता है।'' वह सन्न रह गया, यह वही है! उफ् कितना अन्याय हुआ, इस लड़की के साथ! एक लड़की का ऐसा एकाकी जीवन उसे स्तब्ध कर गया। उसकी सारी परि-ि स्थतियों को रेशा-रेशा उसकी आँखों में मूर्तित हो गया। कैसे सामना किया होगा इस लड़की ने उन आपदाओं को! तभी तो हँसी सूखकर हवा हो गई।


    एक दिन अचानक ही वह उसके सामने आ गई थी। सफेद साड़ी, लम्बी चोटी, कंधे से लटकते झोले में रंग, ब्रश, इजेल, स्केच बुक इत्यादि। भरी दुपहरी, चिलचिलाती धूप। छायादार पेड़ों से घिरी जमीन पर पत्थर तोड़ता वह पसीने-पसीने हो रहा था कि तन्वी उसके पास आ खड़ी हुई। 'बैठो''


  वह बैठ गई। “क्या बना रही हो?'''


  “आपने मुझे पहचाना? इतने सालों बाद?''


  ''हाँ। क्या कहना चाहती हो?'


    “आपसे कुछ सीखना चाहती हूँ।''


    'क्या? बोलो।''


    “स्केचिंग, पेंटिंग। देखिए मेरा यह मोटिव ठीक है? मैं इसे बहुत एपीलिंग बनाना चाहती हूँ। इसमें आप जैसा माहिर कोई नहीं। जितना मैं आपको जानती हूँ, कोई नहीं। मैं आपसे बहुत कुछ सीखना चाहती हूँ।'' अपनी स्केच बुक उसके सामने बढ़ाते हुए तन्वी ने कहा। बहुत शांत, संयत। कुछ समझने की वास्तविक उत्कंठा। इसमें तुम क्या दिखलाना चाहती हो? क्या कहना चाहती हो, मुझे बताओ।''


    “एक संथाल लड़की की कठिन जिन्दगी को, जो सारी तकलीफों को झेलती हुई भी हँसना कभी नहीं भूलती, अपनी वेणी सजाना कभी नहीं छोड़ती। जंगल में पत्तियाँ तोड़ती या सड़क पर झाडू लगाती भी वह लय में नाचती है, अपनी धुन में गाती है। क्या इन रेखाओं में वह इंप्रेशन आ सका है?''


    “बैठो! मैं तुम्हें समझाता हूँ।'' वह आज्ञाकारी बालक की तरह उसको देखती नीचे हरी घास पर बैठ गईवह भी बैठा। देखा। ''पहले रेखाओं में स्थिति पकड़ो, फिर गति, फिर भाव। पहली झलक में तुम्हें क्या मिला, पहले उसे आँखों में बन्द कर लो, ठीक कैमरे की तरह। फिर अन्तर्दृष्टि से उसकी व्याख्या करो, मानवीय पहलुओं से उसका महत्त्व देखो, तब उसे आकार दो''


    “यह बहुत कठिन है विप्लव दा। मैं कर सकती हूँ?''


    “कठिन नहीं है। यदि अन्तस में आग है तो वह तुम्हें ऐसी रोशनी देगी जिससे तुम सब कुछ देख सकती हो, आँक सकती हो। अपने भीतर उतर कर देखो, अपने भीतर कुछ करने की चाह पैदा करो, उसके लिए मेहनत करोपहले देखो, परखो, फिर रचो'' उसके शब्द ग्रीष्म की बरसात हो रहे थे।


    विप्लव ने जो कुछ बताया, तन्वी ने उसे मुग्धभाव से पीया। ''धन्यवाद, विप्लव दा!'' कहकर वह जाने लगी, फिर लौट आई “एलिस दी कहां हैं, विप्लव दा?


    ** अपने देश।''


    “यहाँ क्यों नहीं?''


    “अपना देश सबको प्यारा होता है।''


    ''लेकिन आप दोनों तो देश-परदेश के बंधनों के पार थे???


    “हाँ, लेकिन वैचारिक मतभेदों के पार नहीं हो सके। मैं वापस चला आया। छोड़ो। इन सब बातों के लिए कोई प्रश्न नहीं। जाओ, अपना काम करो।'' विप्लव दा का आदेश सर आँखों पर। वह चली गई।


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    "तनु, तुम कहाँ गई थी?''


    ''स्केचिंग के लिए बहुत दूर चली गई थी।''


    “कहाँ?''


    'जंगल में। संथाल बस्ती में।''


    “कौन था तुम्हारे साथ?''


    “कोई नहीं, मैं अकेली।''


    ''क्यों? किसी को साथ ले लेती। किसी साथी कासाथ होने पर चलना आसान होता है।''


    “यह जरूरी नहीं। आदमी अकेला भी बहुत बलवान होता है। यह आपने ही मुझे सिखाया है। अब मैं सुख से जी सकती हैं। बहुत कुछ कर सकती हैं। अकेली ही मैं बहुत बलवान हो गई हूँ'' वह हँसा। जोरों से ठहाका लगाकर। वह भी हँसी। हँसी में पवित्र पीड़ा भरी उदासी।


    “अच्छा, कभी मैं चलँगा तुम्हारे साथ। प्रकृति के रंगों को कैसे पकड़ा जाता है, प्रकृति के रंग हमारी प्रकृति को कैसे पकड़ते हैं, यानी हमें प्रभावित करते हैं, तुम्हें दिखाऊँगा। सात रंगों में हमारी सम्पूर्ण प्रकृति ही तो दिखती है। रंगों से हम सब कुछ दिखा सकते हैं।'' ''मैं चलँगी। आपके साथ चलँगी। रंगों से मिलूंगी, रंगों को मुट्ठी में पकड़ अपनी बात कहूँगी। उन्हें अपना साथी बनाऊँगी, जो मुझसे कभी नहीं बिछुड़ सकते।'' वह जाने लगी।


    “थोड़ी देर बैठो, मेरे पास।'' विप्लव की स्निग्ध आवाज सुन वह मंत्रबिद्ध सी वहाँ बैठ गई।


    पेड़ों पर भरे पक्षी जोर-जोर से, कोई जश्न मनाते से अपने अपने गीत गा रहे थे। उस समवेत वृक्ष गान को दोनों ने जैसे पहली बार सुना। प्रकृति कितनी सुन्दर है, दूब कितनी नरम है पेड़ कितने छायादार हैं, हवा कितनी खुशगवार है, मौसम उन्हें छू रहा था। कहीं भीड़ बनने की शुरुआत हो गई। चिड़ियों की चोंच से तिनके चुने जाने लगे, होनी अपनी चादर बुनने लगी।


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    ''विप्लव दा, क्या कर रहे हैं?'' आकर छाया सी खड़ी तन्वी ने पूछा।


    ''कुछ बना रहा हूँ, फिर इसे पत्थर पर उतारूंगा।''


    ''देखें, क्या है यह?'' उसने देखा। एक स्त्री आकृति।


    आकाश की ओर देखती करुण आखें, शीर्षक 'अन्त:तपा'। “इसी स्त्री की व्यथा को शब्दों में नहीं आँका जा सकता। रेखाओं में भी नहीं। पत्थर की परतें शायद सच बोल दें। मैं इस सच को पत्थर में ढालकर दिखाने की कोशिश करूंगा। दिन-रात एक कर दूंगा, उसे अस्तित्व में लाऊँगा।'' विप्लव ने जैसे हाँफते हुए कहा। एक दर्दीली अनुभूति उसे विवश कर रही थी। तन्वी कुछ भी नहीं बोल सकी। वापस लौट गई। वह जान गई थी, यह विषय उसी से प्रेरित है। विप्लव दा से उसने कभी कुछ नहीं कहा अपने बारे में न उन्होंने कभी कुछ पूछा। वे कलाकार हैं, बिन कहे सब कुछ समझ जाते हैं।'


    दूसरे दिन उसने पूछा था कि 'अंत: तपा' का अर्थ क्या होता है? “जो अंत:करण से तप कर रही हो। जो सांसारिक मोह माया से दूर अंत:करण से तप में लीन हो, क्योंकि


    शमयतितापं, गमयति पापं, रमयति मानस हंसम।


    हरति विमोह, दुरारोहं तप इति विगता शंसम।।


    यही तप उसे सारी बाधाओं से दूर कर जीने का बल देता है। ''आप जैसे पंडित को समझना मुश्किल है, विप्लव दा। आप जो बोल गए संस्कृत का छंद, मैं तो मरकर भी उसे  नहीं समझ    सकती।


    ''मैंने भी कहां समझा है, पर समझने की कोशिश कर रहा हूँ। विप्लव ने उसकी ओर ठहरकर देखते हुए कहा। “इसका अर्थ बताइए ना!''


    “इसका अर्थ बताइए ना!''


    'फिर कभी पूछ लेना, आज जाओ।''


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    'विप्लव दा, हम बहुत दूर निकल आए हैं, बहुत दूर।''


    “हाँ, अब शालवन शुरू होने वाला है। कभी आई थी इधर?''


   ''  नहीं, कभी नहीं, सिर्फ सुना था। इस शालवन में एक झील है। इस झील के बारे में, साइबेरियन पक्षियों के बारे में। कहीं दूर देश से आते हैं, जाड़े भर यहीं रहते हैं। उन्हें जी भर ठंडक मिलती है, जल विहार करते हैं। आनंद मनाते हैं। उन्हें देखने दूर-दूर से सैलानी आते हैं। कितना अच्छा लगता होगा!''


    “हाँ, अभी तो खाली है झील। फिर भी बहुत सुन्दर हैदेखोगी?''


    'जाड़ों में हम आकर पक्षियों को देखेंगे। वे अपनी आवाज में गीत भी गाते हैं। अजीब सी भेदने वाली, तारसप्तक में खींचती छोटी-छोटी आवाजें होती है उनकी आवाजें!''


    ''आपने सुनी हैं?''


    ''हाँ बहुत श्रील्ड होता हूँ। ठंडे जल में वे उन्मुक्त विहार करते हैं। जब मनोनुकूल शीतलता मिलती है, आनंद के स्वर स्वयं निकलते हैं।'' '


     हाँ।''


    वे दोनों साथ-साथ चल रहे थे। इधर-उधर की बातें कर, एक-दूसरे के सानिध्य में स्वयं के भीतर उतरे जा रहे थे। एक-दूसरे को जानने का प्राबल्य उमड़ रहा था। अतीत दूर जा रहा था, भविष्य ठिठक गया था, वर्तमान ही सब कुछ था। दो मन, दो देह का सच सामने था। अंधेरा उतर रहाथा- सड़क, खेत, झील, शालवन सब अंधेरे में छिपने लगे थे। एक सनसनाहट थी प्रकृति में अंतर में मीठा कंपन। ''मैं अंधेरा पेंट करना चाहती हूँ। शालवन में उतरते अंधेरे को पेंट करूंगी। हरे-भरे पेड़ और पृथ्वी की समस्त जीवंतता को अंधकार में लीन होते दिखाऊँगी।''


    “तुम अंधेरे को ही पेंट करना क्यों चाहती हो?''


    क्योंकि “क्योंकि मुझे वही दिखता है। अंधेरा सब कुछ बँक लेता है। सब कुछ। अपने होने के भ्रम में सभी खड़े होते हैं, पर अंधेरे की विराट सत्ता में डूबे कुछ कर नहीं सकते।''


    **.........।''


    **.........।''


    **.........।''


    **.........।''


    तुम इस अंधेरे को पेंट क्यों नहीं करती?'' एक अंधेरे ने दूसरे अंधेरे को बाँहों में समेट लिया। दो देह की अपनी भाषा होती है, अपने शिकवे शिकायत, अपना स्वीकार अपना अस्वीकार अपना अर्षण-समर्पण। आत्मिक अनुभूतियों में कोई वर्जना नहीं होती। दो देह का संवाद अपने प्राण्य का दावा ठोक रहा था, हम अलग रहने के लिए नहीं बने। हम एक-दूसरे के लिए बने हैं। लेकिन चेतना के धरातल पर उतरते ही तन्वी चैतन्य हो गई। वह थर-थर काँपने लगी। विप्लव ने पुनः उसे अपने कलेजे से लगाकर स्थिर किया।


    “क्या हम दो अंधेरे मिलकर जिन्दगी में रोशनी नहीं पैदा कर सकते? तनु मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। यह झूठ नहीं है। आज से नहीं, तुम स्कूल की बच्ची थी तबसे।''


    “शायद मैं भी। तभी तो एलिस के साथ आपको देखकर मुझे बहुत गुस्सा आता था।''


    ''तो इसे स्वीकार करो।''


    “नहीं! यह कभी संभव नहीं। मैं किसी का विश्वास नहीं तोड़ सकती। पापा मुझे ही अपना बेटा मानते हैं। मैं आपको छोड़ सकती हैं, उन्हें नहीं। जो खुशियाँ आपने मुझे दी है, मैं उसके सहारे मैं जीवन गुजार लूंगी।''


    “और मेरा क्या होगा? मैं तुम्हारे बिना जी सकता हूँ क्या???


    नहीं, मैं पापा को नहीं छोड़ सकती।''


    “तुम्हारे पापा मेरे भी पापा हो सकते हैं। उनके दो बेटे मेरे भी भाई हो सकते हैं।''


    “नहीं, नहीं यह पाप होगा। मुझे माफ कर दीजिए, विप्लव दा। मैं अब आपकी कैसे हो सकती हूँ?''


  “मैं तुम्हारा कैसे हो गया?''


    “हम अगले जन्म में मिलेंगेचलिए, जल्दी चलिए।'' वह साथ-साथ चलती रही, उसकी हथेलियों में हथेली डाल, परन्तु अंततः अलग हट जाने के लिए। तन्वी अलग हट गई, सदा के लिए


    तबसे वह रात दिन 'अंत:तपा' के लिए पत्थर काटता हैऔर तन्वी कॉरीडोर में खड़ी उसे देखा करती है। वह जानता है सफेद साड़ी में लिपटी आँखें उसका पीछा करती है रोज। आज वह बेसुध सी आई थी, मूर्ति की आँखों में उल्लास देखना चाहती है। वह ऐसा क्यों करे?


    अपनी परिस्थितियों से त्रस्त तन्वी अंततः अपने पापा के पास चली गई। अपने सुख के लिए वह पापा को नहीं छोड़ सकती। उनके बुढ़ापे का सहारा वही तो है।


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    कलाभवन का विशाल ऑडीटोरियम। वहाँ 'अनावरण अनुष्ठान' का आयोजन है। विप्लव चैटर्जी की मूर्ति का अनावरण कला संस्कृति के अध्यक्ष द्वारा सम्पन्न होगा। कलाकारों की भीड़ है, विशेषज्ञों की उत्सुकता है, मूर्ति पर पड़े आवरण के उठने की प्रतीक्षा है। ऑडीटोरियम की भीड़ स्वयं ही बता रही है कि यह कैसा शुभ अवसर हैअनावरण के लिए मुख्य अतिथि के हाथ सहसा रुक गएउन्होंने माइक पकड़ी और घोषणा की- 'आदरणीय हंसराज मजूमदार को मैं मंच पर आने के लिए आमंत्रित करता हूँ।' भरी माँग, लाल पाड़ की सिल्क साड़ी में तन्वी ने उस वृद्ध सज्जन की बाँह पकड़ी और विप्लव ने उन्हें सहारा देकर मंच तक पहुँचाया। माइक की आवाज पूँजी, 'अंत:उज्वला' का अनावरण श्रीमान मजूमदार के कर कमलों से सम्पन्न होगा। काँपते वृद्ध हाथों ने जब उसे प्रस्तर मूर्ति का आवरण उठाया तो दर्शक दीर्घा करतल ध्वनि से गैंग गई। इस अंत:उज्वला के वास्तविक निर्माण का श्रेय श्रीमान मजूमदार को ही जाता है। मैं उन्हें बधाई देता हूँ तथा हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ।'' मूर्ति की विहँसती आँखें भारतीय 'मोनालिसा' का अवतार थीशायद मोनालिसा का अगला विकास।


                                                                                                     अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, नालन्दा महिला कॉलेज, बिहारशरीफ