राजेन्द्र आहुति - जन्म : 6 दिसम्बर 1952 शिक्षा : एम.ए, पत्रकारिता में उपाधि दो कवित संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक आलेख डायरी संग्रह प्रकाशित
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बहुत ही प्यारा, सबका दुलारा, मृदुल स्वभाव वाला, पानी की तरह किसी में भी बगैर आग्रह पर भी घुल मिल जाने वाला, सबकी बातें बड़े ध्यान से सुनने वाला रचनाकार है विकास वर्मा। उसकी पूरी जिन्दगी संघर्ष और ईमानदारी की दास्तानों से भरी पड़ी है। उससे संबंधित एक किस्सा किसी को सुनाओ तो पहली कहानी खत्म होने से पूर्व ही दूसरी कहानी जाग उठती है, और चाहती है उपस्थित कानों में धीरे-धीरे उतरती जाना। हम किसी की अच्छाइयों का जिक्र कम करते हैं और बुराइयों की झड़ी लगा देते हैं, मगर विकास में हूँढने पर भी बुराइयाँ हमें नहीं मिली। वह एक अलग तरह का सरल और विरल इंसान है।
यदि वह किसी के घर जाता है तो स्वागत में सामने रखा हुआ बिस्कुट या मिठाई कतई नहीं खाएगा। मित्र की पत्नी के दबाव पर एहसान की अदा में मिठाई या बिस्कुट का एक छोटा टुकड़ा तोड़कर उसे उठाएगा, मुँह खोलेगा और आहिस्ते से खाद्य वस्तु को चोट न लगे इस भाव से उसे मुँह के तलघर में रख देगा। जब वह जाने लगेगा, मित्र की पत्नी से कहेगा-भाभी जी गिलास साफ है। स्त्रियों के श्रम का वह सम्मान करता है। एक दिन वह अपने अभिन्न मित्र राकेश से मिलने उनके घर गया। स्कूल की छुट्टी की वजह से राकेश का एक मात्र बेटा सिद्धान्त घर ही में था और टी.वी. देख रहा था। विकास चलने से पहले सिद्धान्त से पूछता है-खाने में क्या-क्या बना है? उत्तर में सिद्धान्त कहता है- आप हमेशा सिर्फ पूछते हैं, कभी खाते-खाते तो नहीं। बर्थ डे में खाएँगे भी तो थोड़ा सा, यदि खीर में इलायची पड़ी हो तो उसे खाएँगे नहीं। इलायची तो अच्छी चीज है उससे भी आप न जाने क्यूँ परहेज करते हैं ....?
उसके प्रश्रों का जवाब विकास ने नहीं दिया और सिद्धान्त को आशीषते चल दिया। विकास की माँ किशोरी देवी संघर्ष की प्रतिमूर्ति थी, परिषदीय विद्यालय रामनगर की शिक्षिका थी। भरी जवानी में छोटे-मोटे बच्चों को भगवान के सहारे छोड़ उनके पति यानी विकास के पिता श्रीकृष्णावतार वर्मा जो गणित के सफल मास्टर थे, असमय स्वगीय हो गए। पति का सारा दायित्व बखूबी विकास की माँ ने उठाया। उनका एक मात्र बेटा विकास है जिसे उसकी माँ मुन्ना कहकर बुलाती है। वह उत्तर प्रदेश सरकार के फूड कॉपोरेशन विभाग में क्लर्क था, इसलिए कि अब वह रिटायर हो गया है। हर माह उसे तेरह हजार रुपये पेंशन मिलती है और वह जीवित है, इसका प्रमाण-पत्र वर्ष में एक बार विभाग में देना होता है।
हाँ तो मैं बात कर रहा था उसकी माँ की। माँ ने अपनी दो बेटियों, एक बेटा और दो पोतियों की शादी इतनी धूम- धाम से की कि देखनेवाले दंग हो देखते रह गए। कोनिया मुहल्ले में दो बिस्से जमीन पर ढंग का मकान बनवाया। अपनी पेंशन के सारे रुपये बेटे के संसार में हँसी-खुशी खर्च कर देती थी। फिजूलखर्ची और लेट लतीफी, देर से घर आने पर विकास को जी भरकर गरियाती और डाँटती थीं, मर किरौना शब्द उनका तकिया कलाम था। विकास को डाँट खाने की आदत पड़ चुकी थी। वह माँ के सामने मुँह लटकाए गाली और डाँट की बारिश में प्रायः नहाता रहता था, दूसरे दिन फिर वही गलती दुहराई जाती। एक तरह से विकास के दैनिक रवैए से माँ ऊब चुकी थी। विकास भी माँ से नजरं चुराता रहता था। जब वह देर से घर पहुँचता तो मन में यूंही सोचता रहता था कि अब माँ सो गई होगी, मगर बेटे के घर आए बगैर कोई माँ कैसे चैन से सो सकती हैं। बेटे माँ की इस बात को पता नहीं क्यों नहीं समझते हैं? माँ कैसी होती है इसे हर बेटा माँ के नहीं रहने पर समझता है।
माँ श्रीमती किशोरी देवी ७५ बसंत, तीन सौ मौसम हँसी- खुशी देख लेने का स्वाद अपने से जुड़े संबंधियों को ढेर सा आशीर्वाद की वर्षा करके बारिश की बूंदों की उपस्थिति में पंद्रह जुलाई २०१२ ई. को स्वर्ग के लिए चल बसी। मगर आज भी माँ की अच्छाइयाँ घर भर में टहल रही हैं जिसकी गवाही आम और केले के पेड़ भी दे रहे हैं।
माँ के देहावसान से माँ को हर माह मिलने वाली पेंशन अठारह हजार रुपये मिलनी बंद हो गई। अचानक घर की सुचारू व्यवस्था में कमी महसूसी जा रही थी। घर के बारे मेंविकास को कुछ भी अता-पता नहीं था। अब जाकर दैनिक खुर्ची से विकास का आमना-सामना हुआ है।
विकास का शेरो-शायरी करना लगभग बंद हो गया है, अब उसका मन हाइकू लिखने में लगा हुआ है और लिख भी लेता है और कहीं छप भी जाता है, उसकी हाइकू बड़ी मारक होती है। सभा गोष्ठियों में और किसी के भी घर आना जाना प्रायः बंद है। धीरे-धीरे उसमें एक नया परिवर्तन होने लगा है। इसकी वजह है कि वह दिल का मरीज हो गया है। दिल की वजह से सीढ़ियाँ चढ़ने में, नाती-पोते को गोद में उठाकर चलने में बहुत तकलीफ होती है। साहित्य के प्रति उसकी रुचि बनी हुई है इसलिए वह अपना समय पढ़ने में अधिक व्यतीत करता है। चलने में साँस फूलती है फिर भी बहुत कुछ कर लेता है, बड़ा हिम्मती है। वह अपने घायल हृदय को अपने अनुभव से आयुर्वेदिक दवाओं से सम्भाले हुए है। घर आए साहित्यिक मित्रों को नया कुछ और लिखने के लिए उकसाता रहता है। उसी के उकसाने पर मित्र राकेश का एक उपन्यास 'अंधेरी सुरंग से गुजर रहे हैं हम' आ सका। वह हमें भी नई किताब के लिए प्रेरित करता आया है। उसके पास आयुर्वेद रत्न की उपाधि है। अपने ज्ञान से बनाई दवा का सेवन आठ वर्षों से करता आया है। बहुत पूछने पर कहता है- पहले से आराम है। पहले वह पान बहुत खाता था। अब वर्षों से पान खाना उसका बंद है, दांतचमकने लगे हैं दूध जैसे। उसकी आदत में अब खैनी शुमार है और पान किसी की जिद पर कभीकभी ही खाता है1
बात वह कुछ भी करे एक बार जरूर कहेगा-दिल से कह रहा हूँ। जैसे फिल्मी गीतकार समीर अपने प्यार भरे गानों में दिल शब्द का प्रयोग करते हैं। विकास के प्रिय मित्रों में समीर का भी एक नाम है। उसके मित्रों की संख्या बहुत है लेकिन सबसे प्रिय मित्र हैं गणेश प्रसाद गम्भीर। अपने गर्दिश के समय गणेश प्रसाद गम्भीर बगैर कोई किराया अदा किए सपरिवार विकास के यहाँ वर्षों लंगर डाले रहे। उस समय विकास की माँ जीवित थीं। बातें हो रही थीं विकास की और बीच में आ टपके गणेश प्रसाद गम्भीर वह इसलिए कि बगैर गम्भीर के विकास का व्यक्तित्व ठीक तरह से खुल नहीं पाता। ये दोनों आपस में लंगोटिया यार हैं और विकास यारों का यार है। मेरा प्रवेश उसके जीवन में दोनों के मध्य बहुत बाद में हुआ।
अपने रिटायरमेंट के समय विकास के मन में, स्वप्न पल रहा था कि वह धीरे-धीरे बेटियों और बेटे के बच्चों की जिम्मेदारियों के नीचे दबकर रह गया है, उड़ते पंछी का पर कट गया है। छोटी बेटी की शादी एक शिक्षित और सम्पन्न घर में हुई। जो अब दो बेटियों की माँ हैबड़ी बेटी का एक बेटा है पांच साल का। दोनों बेटियाँ अलग-अलग प्राइवेट संस्थान में नौकरी करती हैं। बेटे का भी एक चार साल का बेटा हैऔर अभी-अभी तीन माह हुए एक बेटी हुई है।
छोटी बेटी के घर आने पर अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने छोटा दामाद आता रहता है। वर्षों से छोटी बेटी अपने पति के साथ शहर ही में रह रही है। जो सिर्फ त्योहार के अवसर पर ही माँ-बाप के पास आती है। बड़ी बेटी का पति अपनी ससुराल आना तो चाहता है मगर घर आने के लिए उसे मना कर दिया गया है। बड़ी बेटी भी कहीं भी पति से मिलना नहीं चाहती है, उसकी वजह भी बहुत बड़ी है।
बड़ा दामाद जो भी कमाता है उसे शराब में उड़ा देता है, मना करने पर चीखने लगता है, पत्नी को मारने लगता है। उसे इसकी चिंता नहीं है कि मुहल्लेवाले उसकी हँसी उड़ाते हैं, उसे सिर्फ अपनी शराब की चिंता रहती है। शराब के आगे बच्चे के दूध की जरूरतों पर तनिक भी ध्यान नहीं रहता है। न जाने कितनी बार उसने अपनी सुशील, सुंदर, सुघड़ पत्नी को नशे में मारा है, यह उसे भी याद नहीं है। किसी भी पत्नी की मार को बर्दाश्त करने की एक सीमा होतीहै। वह पिता का घर छोड़ पति के घर प्यार पाने की उत्कंठा से जाती है, पति की मार सहने नहीं जाती है।
एक रात पति ने अपनी पत्नी को इतना मारा, इतना मारा कि पूरा चेहरा खून से नहा उठा, सर चोट की वजह से फट गया था। बेटी रोती कलपती बहते खून को हाथों से पोंछती गोद के बेटे को उठाकर उसी दशा में आधी रात पिता के घर जैसे-तैसे चली आई। बेटी के चेहरे पर खून देखकर पिता का ठण्डा खून भी खौल गया। उसे विकास अस्पताल ले गया। बेटी को देखकर डॉक्टर ने कहा-यह तो पुलिस केस है, पहले एफ.आई.आर. दर्ज करवाएं तब जाकर इलाज होगा। एफ.आई.आर. और पुलिस की कार्रवाई से विकास बचना चाह रहा था, उसे पुलिस और मुकदमा से डर लगता । उसने अपने छोटे समधी जी जो सी.एम.ओ. हैं से दबाव डलवाकर बेटी की दवादारू करवाई। बेटी का कहना हैवह मर जाएगी, लेकिन पति के पास जीते जी कभी भी नहीं जाएगी और न ही बच्चे से उन्हें मिलने देगीवह कहीं नौकरी करके बच्चे को पढ़ा लेगी, बड़ा कर लेगी और बगैर किसी पर बोझ बने खुद भी ढंग से जी लेगी। पापा मैं यहाँ पर बोझ बनने नहीं आई हूँ, बस सिर्फ आप हमें यहाँ रहने की थोड़ी जगह दे दीजिए।
बड़ा दामाद जिस-तिस से अपनी गल्तियों पर उसे माफ कर देने की गुहार लगाता रहता है, लेकिन बेटी के हृदय में पति के लिए प्रवेश वर्जित है। उसके मन में जो छवि बसी थी पति की वह धूमिल हो चुकी है। बड़ी बेटी को देखकर उसके भविष्य की कल्पना करके विकास न जाने किस सोच में खो जाता है। बेटी की इच्छा के विरुद्ध कोई भी पिता कभी भी 7 या ना ३ वट - नहीं जाना चाहता है तो विकास भी कैसे जा सकता है। वह फिर से बेटी की जिन्दगी को संवारने के संदर्भ में मन मंथन करता ही रहता है, उसके रहते बेटी पहले । की तरह खुश हो जाए। उसे पति के घर की तरह पिता के घर में कोई दुख न हो।
विकास के सुदृढ़ सोच का परिणाम है कि एक दिन घर के आँगन में ईंट, बालू, सीमेंट के ढेर लग गए हैं। एक मिस्त्री और चार मजदूर भी आ गए हैं। सारे सामान को देखकर एक मात्र बेटा भौंचक है कि यह क्या हो रहा है? भाई-बहन को साथ में रखना तो चाहता है, मगर यह नहीं चाहता है कि बहन के लिए अलग से एक कमरा, किचेन और शौचालय बने । विकास जो बेटे से कम ही बोलते हैं, बेटे को तरह-तरह से समझाते हैं, समाज के लोकलाज की दुहाई देते हैं। सब कुछ चाहते हुए भी अंततः बेटा खामोश हो जाता है, सिर्फ इतना ही कहता है-मैं एक रुपया भी इसमें सहयोग नहीं करुंगा। जबकि बेटा बिल्डिंग कनस्ट्रक्शन का काम करता है। उसने कई तरह के कामों को आजमाया मगर किसी में भी उसे सफलता अभी तक नहीं मिल पाई है।
अपने मकान के ऊपर दो महीने में दो कमरे, एक किचेन, एक बाथरूम विकास ने बनवा दिया है। बाहर का प्लास्टर और रंग-रोगन न जाने क्यूँ अभी भी बाकी है। बेटी भी वहाँ नहीं रहती है। वह पहले की ही तरह घर में रह रही है। बाद उनके बेटी का क्या होगा? विकास सोचता रहता हैनिरंतर। अभी-अभी उसने हार्निया का ऑपरेशन करवाया हैलेकिन दर्द से पीछा नहीं छूटा है।
एक पिता को अपने बच्चों के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, वे सारे काम विकास किए जा रहा है, जिनसे इलायची का सुगंधित दाना भी पसंद नहीं है वह सब कुछ बेटी के लिए कर डालना चाहता है। वह अपने से अधिक दूसरों के लिए जीए जा रहा है, अपने दुख को मन ही में कहीं दबाए। उसके बाद उसके घर का क्या होगा? इसकी चिंता विकास हमेशा अपने दिल में पालता जा रहा है। वह घर का बिखरा सबकुछ संवार देना चाहता है।
रिटायरमेंट के बाद एक मुश्त मिले लाखों रुपये बेटा व्यापार के अनुभव में न्यौछावर कर चुका है। अब बाप-बेटे दोनों का हाथ खाली-खाली है। एकमात्र जमीन, मकान के कागज ज बैंक में जमा करके बैंक के लोन का ही सहारा है। बैंक से लोन मिल गया है जिसके फलस्वरूप घर के आँगन में मशीन जो बड़ी- बड़ी है, लग गई है। आम के पेड़ का आधा हिस्सा काट दिया गया है। केले के पेड़ अलविदा की स्थिति में हैं, सिर्फ तुलसी का पौधा सही सलामत है। बाहर का बैठक जो आगंतुकों के लिए सुरक्षित था, उस पर मशीन के काम में लगे दो सहयोगियों का कब्जा हो गया है। इस मशीन से मिनरल वाटर की बोतल और बीस लीटर वाला केन बनेगा। जो कुछ दिन बना भी, बाजार में बिका भी। बनते-बिकते पात्रों को देखकर बेटे के मन में लाखों रुपये के सपने पनपने लगे। अभी चार महीने से मशीन बंद पड़ी है। एक दिन बेटा कह रहा था-मशीन को फिर से चालू करने के लिए ढाई लाख रुपये की जरूरत है। बैंक और रुपये देने को तेयार नहीं हैं इसलिए बेटा घर पर आए परिचितों से मदद की गुहार लगाता रहता है और यह भी वादा करता हैकि आपका एक भी रुपया कभी नहीं डूबेगा, सिर्फ एक बार फिर से मशीन चालू हो जाए। उसकी बातों पर किसी को भरोसा नहीं होता है, और अपने पिता को वह इस तरह के लेन-देन से अलग रखना चाहता है। कहीं से कुछ हो जाए कि चिंता में उसका चेहरा प्रायः मलिन ही रहता है। वह अपनी पत्नी और बच्चे को बेमन से बाइक पर बैठाकर शहर की सैर करवाता रहता है। यदि आप किसी आर्थिक मुसीबत में हो या अस्पताल में संग साथ की जरूरत हो तो एक बार विकास से कह दीजिए, उसके पास रुपया नहीं भी होगा तो वह किसी से सूद पर कर्ज लेकन आपके हाथों में रख देगा और स्वयं हर महीना आपके दिए बगैर सूद अदा करता रहेगा। इस तरह से उनसे कई लोगों ने छला भी है। उसे बरगलाना बहुत ही सरल है, वह एक भावुक इंसान है। वह सभी का भला चाहता है। ऐसे भले लोगों को क्यों हो जाती है दिल की बीमारी....? क्यों घट जाती है घर में अप्रिय घटनाएँ। मैं बार-बार उसे समझना चाहता हूँ लेकिन समझा ही नहीं पाता। माँ भी पुजारिन थीं, वह भी पुजारी है, कौर मुँह में डालने के पहले भगवान को याद कर लेता है। सूद पर रुपये लेकर किसी की मदद करने की बुरी आदत की वजह से उसकी माँ उसे बहुत ही खरी-खोटी सुनाती थीं। जो बेटे को ढाई लाख रुपये देने में असमर्थ है, उसकी समर्थता में में हर महीना मिलने वाली १३ हजार रुपये पेंशन की राशि के अलावे हाथ में अलग से कुछ भी नहीं है। इसी पैसे में घर का खर्च है, उसकी और पत्नी की बीमारी, नाती-पोते की फरमाइश है और अपने पढ़ने का खर्च भी है।
इस समय वह बड़ी बेटी के भविष्य को लेकर, बेटे की गृहस्थी को लेकर, उसकी हँसी-खुशी को लेकर बहुत ही उलझन में हैं। बहुत कुरेदने पर भी वह खुलकर कुछ भी नहीं बताता, धीरे से हर हाल में मंद-मंद मुस्कुराता रहता है। घरेलू सफेद कुत्ते से, अपने पोते, नातियों से खेलता रहता है। अपने कुत्ते को शेरू के नाम से बुलाता है। कोई यदि लोहे के मेन गेट पर दस्तक देता है तो शेरू सर्वप्रथम भौंकते हुए गेट तक आता है, तब जाकर पीछे-पीछे घर का कोई सदस्य गेट खोलने आता है। वृद्धावस्था में आदमी को और क्या-क्या देखना पड़ेगा, इसे कोई भी नहीं जानता। उसे जब यदा-कदा हार्निया के ऑपरेशन के पहले बेटी को स्कूटर पर बिठाकर रास्ते में जाते-आते हुए देखता हूँ तो सच में मुझे आश्चर्य होता है।
सम्पर्क : ए. 13/68 सेवईमंडी, प्रहलाद घाट, वाराणसी, उत्तर प्रदेश मोबाइल नं. : 9369368133