आलेख-विचारों के सूर्योदय की धरती से चली गई एक और साहित्यिक प्रतिभा - प्रो. कृष्ण चन्द्र लाल

प्रो. कृष्ण चन्द्र लाल - दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष। कई कहानी संग्रह, एकांकी एवं आलोचना पर कई पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पुस्तकों का सम्पादन।


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          जगदीश  नारायण श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक 'पूर्वी उत्तर प्रदेश का साहित्यिक परिदृश्य में पूर्वी उत्तर प्रदेश को 'विचारों के सूर्योदय की धरती' कहा है और स्पष्ट किया है कि यह धरती ज्ञानियों, ध्यानियों, योगियों, संतों, साहित्यकारों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की वह धरती रही है जहाँ से हमेशा विद्रोह या प्रतिरोध की चेतना बराबर उद्दीप्त होती रहींवे लिखते हैं- 'इतिहास गवाह है कि बौद्धों, योगियों, संतों की विद्रोही परम्परा में कबीर के काव्य और प्रेमचन्द की कथाभूमि को इसी भूमि ने अपना सम्पूर्ण यथार्थ सौपा था। 'स्वदेश' यहीं से पूरे देश में क्रान्ति की चिनगारियाँ धधकाकर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त हुआ, जिसके प्रवेशांक का सम्पादकीय, सम्पादक दशरथ द्विवेदी ने मन्नन द्विवेदी गजपुरी की सलाह पर मुंशी प्रेमचन्द से लिखवाया था। 'स्वदेश' के विजया विशेषांक का सम्पादक पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने किया था। उस अंक को लेकर गोरी गवर्नमेण्ट में तहलका मच गया। ----- राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा 'यहीं की जेल कोठरी में लिखी गई। अंतत: राम प्रसाद बिस्मिल' ने अपनी 'सरफरोशी की तमन्ना' यहीं पूरी की। महात्मा गाँधी के प्रति असीम श्रद्धा के बावजूद विदेशी शासन के प्रति चौरी चौरा काण्ड के रूप में अपना आक्रोश यहीं की जनता ने व्यक्त किया बन्धू सिंह यहीं 'खुले आम सूली पर चढ़ाए गए।' तात्पर्य यह कि इस धरती के वीर सपूतों ने हमेशा क्रान्ति, विद्रोह और प्रतिरोध का बिगुल बजाया है और समय-समय पर देश की जनता को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा ही नहीं दी, उसके विचार-पथ को भी नई रोशनी से आलोकित किया है। जगदीश नारायण भी इसी धरती के साहित्यिक सपूत थे जिनका ३० मार्च २०१९ को ८३ वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनका जन्म २७ मई १९३६ ई. को देवरिया (उत्तर प्रदेश) जिले के एकोना नामक ग्राम में हुआ था। राष्ट्रीय इण्टरमीडिएट कॉलेज, बड़हलगंज से इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से १९५३ में एम.ए. (हिन्दी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद पूर्वोत्तर रेलवे की सेवा में आ गए और सन् १९९४ में पूर्वोत्तर रेलवे गोरखपुर में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए। निधन के समय वे अपने नवनिर्मित स्थायी निवास शिवपुर शहबाजगंज में रह रहे थे।



       हिन्दी साहित्य की उल्लेखनीय सेवा करने वाले अनेक रेलकर्मियों की तरह जगदीश नारायण ने भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा से हिन्दी साहित्य विशेषकर आलोचना-साहित्य को समृद्ध किया है और आलोचना शक्ति को नई स्फूर्ति एवं ऊर्जा दी है लेकिन दुखद सच्चाई यह है कि हिन्दी जगत ने उन्हें वह मान और स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। उन्होंने लिखने के लिए नहीं लिखा है। यदि लोग यह न जाने कि वे रेलकर्मचारी थे और केवल उनके ग्रंथों का अध्ययन करें तो उन्हें यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि जगदीश जी साहित्य के पूर्णकालिक साधक थे। उनके ग्रंथों से उनकी मानसिक तैयारी और साहित्य को समर्पित पूर्ण निष्ठा का पता चलता है। यह तथ्य तब और महत्वपूर्ण होकर रेखांकित होता है जब हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि जीविका के लिए रेलवे में एक जिम्मेदार अधिकारी की भूमिका निभाते हुए उन्होंने एक प्रतिभापूर्ण साहित्य समीक्षक और साहित्य के अनुसंधाता के रूप में उल्लेखनीय कार्य किया। हमारा ध्यान इस बात पर जाना चाहिए कि जगदीश जी ने साहित्य के क्षेत्र में जो कार्य किया, वह उनकी अन्त:प्रेरणा और गहरी साहित्यिाभिरूचि का प्रमाण है, उनके इस लेखन का संबंध विभागीय गति-प्रगति या किसी प्रकार की प्रोन्नति से नहीं है। उन्नति-प्रोन्नति के लिए विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में जिस तरह का लेखन और प्रबन्धन चल रहा है, जगदीश जी ने उससे एकदम दूर रहकर साहित्य के सरोकारों और विमर्शों से जुड़कर कार्य किया और एक प्रतिबद्ध लेखक के रूप में अपने को प्रतिष्ठित किया।


        यह जानना दिलचस्प और महत्वपूर्ण है कि जगदीश जी की महती मैत्री पूर्वांचल की महत्वपूर्ण प्रतिभाओं-देवेन्द्र कुमार 'बंगाली', केदारनाथ सिंह और परमानंद श्रीवास्तव से रही है। अब ये प्रतिभाएँ नहीं रहीं और उन्हीं की पंक्ति में जगदीश जी भी सम्मिलित हो गए हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जगदीश जी ने अपने लेखन से भी अपने को उन्हीं की पंक्ति में स्थापित कर लिया है। जब भी पूर्वांचल की प्रतिभाओं का जिक्र होगा, जगदीश जी को भी उनके साहित्यिक अवदान के नाते उनके साथ याद किया जाएगा।


       जगदीश नारायण श्रीवास्तव के चार ग्रंथ प्रकाशित   श्रेय भी उन्हीं को है कि उन्होंने मुझे भी अपने आत्मीय जनों की सूची में न केवल सम्मिलित किया बल्कि बराबर उस आत्मीयता को सुदृढ़ किया। फोन पर हाल चाल लेने और अचानक घर पर मिलने आ जाने का जो सिलसिला उन्होंने शुरू किया, वह मृत्यु के दो-तीन महीनों के पहले तक चलता रहावे उम्र में मुझसे वरिष्ठ थे, पर कभी वरिष्ठता का दिखावा नहीं किया, या किसी तरह का अभिमान नहीं जताया। वे घर पर आकर साहित्य-समाज और साहित्यकार मित्रों-परमानंद श्रीवास्तव, केदारनाथ सिंह, राम विनायक सिंह, माधव मधुकर, रामसेवक श्रीवास्तव, हरिहर सिंह, देवेन्द्र कुमार बंगाली, जीवन जी, डॉ. शिवरतन लाल, ठाकुर प्रसाद सिंह आदि की और साहित्यिक गोष्ठियों की जैसी सकारात्मक चर्चाएँ करते थे, उससे मुझे बड़ा लाभ हुआ और मैंने महसूस किया कि साहित्यिक व्यक्ति में इसी तरह की साहित्यिक रूझान होनी चाहिए, न कि इनकी-उनकी निन्दा-प्रशंसा से क्षुद्र अहंतुष्टि। उनका स्मृति-कोष बड़ा समृद्ध था। लोगों के साथ उनका संपर्क भी विविध और बहुआयामी था। वे लोगों के दुख-दर्द में शामिल होने वाले व्यक्ति थे, इसलिए उनके पास जीवन के तरह-तरह के अनुभव और प्रसंग थे। मैंने उनसे कहा- जब आपके पास स्मृतियों और अनुभवों का इतना बड़ा खजाना है तब इस सबको लिख डालिए ताकि लोगों को एक प्रामाणिक स्मृति-ग्रंथ उपलब्ध हो सके। उन्होंने कहा 'आत्म कथा और संस्मरण मैं लिख रहा हूँ।' देहावसान से एक माह पूर्व उन्होंने सूचित किया- 'आत्मकथा पूरी हो गई है।' प्रकाशन के लिए 'किताब घर' से संपर्क करूंगा।' लेकिन उनके साहित्यिक अभियान के सामने अचानक पूर्ण विराम लग गया। यदि उनकी आत्मकथा प्रकाश में आ सकी, तो मेरा विश्वास है कि लोगों को प्रगतिशील लेखन से लेकर आज तक के बहुत से घटनाक्रमों और तथ्यों की जानकारी मिल सकेगी। जगदीश जी का साहित्यिक जीवन गहरे सरोकारों वाला जीवन था, वे जीविका के लिए रेलवे के अधिकारी थे लेकिन उनकी आत्मा साहित्यिक दुनिया में साँस लेती थी।


      सन् १९७६ में जब जगदीश जी की किताब 'समकालीन कविता पर एक बहस' प्रकाशित हुई, तब उनका आलोचक रूप मुखर होकर सामने आया। इसके पहले उनके मित्र परमानंद श्रीवास्तव 'नयी कविता का परिप्रेक्ष्य' लिख चुके थे। जगदीश जी ने समकालीन कविता पर धारदार बहस छेड़ी और अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए बड़े ऊँचे स्वरों में साठ के बाद की हिन्दी कविता की आलोचना की और समकालीन कविता की दृष्टि और चेतना पर प्रकाश डाला। उन्होंने लिखा 'बहस आमने-सामने ही नहीं होती, वह रचनाओं के माध्यम से बराबर चलती रहती है और इस तरह शायद ज्यादा तर्कसंगत, आधिकारिक और विश्वसनीय बनती है। कला के ही विकास के लिए क्यों, खुद जिन्दगी के विकास के लिए भी ऐसी रचनात्मक बहसें जरूरी होती हैं।' इसी समय उनकेमित्र देवेन्द्र कुमार बंगाली ने 'बहस जरूरी है' जैसी लम्बी कविता लिखी थी। जगदीश जी की इस पुस्तक में बंगाली की रचनाधर्मिता पर काफी विचार किया गया है।


      पुस्तक के आरंभ में ही जगदीश जी ने रचना और आलोचना के पारस्परिक रिश्तों की व्याख्या करते हुए अपनी आलोचना दृष्टि को भी स्पष्ट कर दिया है। वे मानते हैं कि आलोचना, रचना और पाठक समुदाय के बीच का पुल ही नहीं है, वह शब्दों और शब्दों के बीच रचनाकार द्वारा जो अंश संप्रेषित छूट जाता है, उसका उद्घाटन भी करती है, इसलिए रचना की ही तरह आलोचना भी एक जरूरी कार्य है। इस तरह उन्होंने रचना और आलोचना के बीच होने वाली स्वस्थ टोका-टोकी को जरूरी मानते हुए उन लोगों के विचारों को खारिज कर दिया है जो यह मानते हैं कि 'रचनाएँ, रचनाएँ हैं, मूंगफलियाँ नहीं कि उनका मूल्यांकन किया जाएइस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने अकविता वाले कवियों की कड़ी आलोचना की है और लिखा है- 'इस तर्क को आधार बनाते हुए 'अकविता' के दौर के कवियों के लिए आलोचना रातों-रात 'ड्रेन इन्स्पेक्टर्स रिपोर्ट' हो गई और आलोचक ट्रैफिक पुलिस का सिपाही'जाहिर है कि साहित्य के बाजार में नं. २ का माल लेकर उतरने वालों की हर सृजनधर्मी लेखक 'ट्रैफिक पुलिस का सिपाही' ही नजर आएगा। दरअसल 'आलोचनाओं का प्रश्न 'साहित्य क्यों के प्रश्न से अलग नहीं।' रचना और आलोचना के द्वन्द्वात्मक संबंध की पहचान करते हुए जगदीश जी ने 'समकालीन कविता पर एक बहस' की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है- 'मैं इधर अक्सर यह अनुभव करता रहा हूँ कि समकालीन कविता को पहचानने की कोशिश में इसके समय की आलोचना की नजर या तो परवर्ती नई कविता में ही उलझकर रह गई या उसने मुक्तिबोध की कविताओं से ही इसका लघुत्तम समापवयं निकाल लिया। जाहिर है कि ये दोनों स्थितियाँ समकालीन कविता की पहचान को ओझल करती हैं। आलोचना के दृष्टिगत घालमेल तथा पूँजीवादी देशों के कला-प्रतिमान अपनाने के कारण भी समकालीन कविता की पहचान धूमिल हो रही है। वस्तुतः कृतियों की पहचान के लिए मर्मपूर्वक उनकी आभ्यांतरिक राहों से गुजरना जरूरी है और यह पहचान सिर्फ 'आस्वाद के धरातल पर नहीं बल्कि कृतियाँ हममें कौन-सा विवेक जगाती हैं, हमें कहाँ ले जाती हैं, इस बात पर भी टिकती है। इन सारी स्थितियों को दृष्टि सापेक्ष्य रखकर ही मैंने पिछले दो दशकों से लिखी जा रही कविता को समझने पहचानने और शब्दों को फोड़कर उनके रचना-सत्य से दो-चार होने की बेहिचक कोशिश की है। अपनी इस आलोचना दृष्टि के साथ जगदीश जी ने समकालीन कविता की स्थितियों-परिस्थितियों और प्रवृत्तियों की जो समीक्षा और व्याख्या की है, और जिस तरह बेहिचक आलोचना की है, वह उनकी कविता की समझ के साथ-साथ समकालीन कविता के सहृदय के रूप में की गई आलोचना का प्रमाण है। उनके आलोचना शीर्षकों से उनकी कविता में पैठ और मूल्यांकन-विवेक को आसानी से समझा जा सकता है यथा- 'समकालीन कविता : चिन्तात्मक काव्य परिणतियों की संज्ञा', 'स्वातंत्र्योत्तर कविता : लोक संवेगों की गीतात्मक प्रतिकृति', 'अकेलेपन   का मनस्ताप', 'स्वप्न-भंग', 'समकालीन कविता की जड़े', 'आधुनिकता', 'नगर बोध और अकविता', 'प्रतिबद्धता', 'असहमति और विकल्प-विवेक की निश्चयहीनता', 'व्यव स्था की परिभाषाहीनता और विरोध की कविता', 'काव्य भाषा की समकालीनता और जनभाषा का सवाल', 'नये सौन्दर्य शास्त्र का प्रश्न'। इन शीर्षकों से समझा जा सकता है कि जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने समकालीन कविता में बहुत गहरे धंसकर उसके वैशिष्ट्य और रुख को जाना-पहचाना है और अनुचित का तीव्र विरोध किया है। उन्होंने प्रशंसा और समझौता के सतहीपन से दूर रहकर कविता के हितैषी के रूप में स्वस्थ आलोचना का परिचय दिया है। उनकी आलोचना- भाषा और तेवर को समझने के लिए इस पैराग्राफ को पढ़ा जा सकता है- 'सच्चाई यह है कि समकालीन कविता देश की चिन्ताजनक स्थितियों में 'इन्वाल्व' होने की कविता है। ऐसी स्थिति में सही रचनाकार को इसकी चिन्ता नहीं होतीकि उसकी रचना बचती है या वह स्वयं'। वैसे तो समकालीन शब्द जैसा कि निर्मल वर्मा कहते हैं आज काफी विकृत हो चुका है। प्रायः उन सब लेखकों के लिए यह प्रयुक्त होता है जो आज जीवित हैं और लिख रहे हैं। अक्सर उनके लिए भी जो 'जीवित नहीं है और लिख रहे हैं।' जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने अपनी इस आलोचना-पुस्तक से अपने समय की कविता की जैसी साहसपूर्ण समीक्षा की है, उससे कविता के आन्तरिक परिवर्तनों का पता तो चलता ही है, कवियों की राजनीति का भी खुलासा होता है। यहाँ उस सबकी विस्तृत विवेचना नहीं की जा सकती लेकिन इतना तो बताया जा सकता है कि जगदीश जी ने समकालीन कविता की समीक्षा करते हुए समय, समाज, देश और राजनीति के साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय प्रभावों को बड़ी गहराई से समझने और समझाने की कोशिश की है और समकालीन कविता के स्वस्थ विकास की दिशाओं को स्पष्ट किया है। इस पुस्तक से जगदीश नारायण श्रीवास्तव की पहचान एक सधे हुए चिन्तक काव्यालोचक के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है।


    'उपन्यास की शर्त' से जगदीश जी ने अपने को कथा-समीक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। यह पुस्तक १९९३ में प्रकाशित हुई। 'समकालीन कविता पर एक बहस' के अट्ठारह वर्ष बाद अर्थात् काव्यालोचना के बाद वे १८ वर्षों तक उपन्यास-साहित्य का अध्ययन-मनन करते रहे। कहा जा सकता है कि उन्होंने उपन्यास-समीक्षा के क्षेत्र में एक लम्बी साधना के बाद कदम रखा और पूरे दम-खम के साथ ऐसी कथा-समीक्षा का उदाहरण प्रस्तुत किया जो रचना में अन्त:प्रवेश करके रचना-सौन्दर्य का उद्घाटन करती है। 'उपन्यास की शर्त' के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- 'समय और सामाजिकार्थिक दबावों' के कारण जिन्दगी की शर्ते बदलती रहती हैं। यदि उपन्यास जीवन की आलोचना है तो उसके सृजन और मूल्यांकन की शर्ते भी बदलनी चाहिए।' इसी के साथ मूल्यांकन के शाश्वत सिद्धान्त की धारणा से इनकार करते हुए उन्होंने रचना के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा- 'सर्जना की अनिवार्य शर्त है एक निश्चित उद्देश्य से, एक अभीष्ट दिशा में यथार्थ का रूपान्तरण। इसी दृष्टि से अनेक बार दुहराया जाता है कि प्रत्येक कृति वस्तुजगत में एक कलात्मक और जनपक्षधर हस्तक्षेप होती है। स्पष्ट है कि वे जनपक्षधर हस्तक्षेप को कलात्मकता से अनिवार्य रूप से जोड़ते हैं। उन्होंने अपनी कलात्मक और जनपक्षधर दृष्टि के साथ हिन्दी के २८ उपन्यासों की गंभीर समीक्षा की है। इन उपन्यासों में 'विपात्र' (मुक्तिबोध), झूठ-सच (यशपाल), आधा गाँव (राही मासूम रजा), तमस (भीष्म साहनी), जिन्दगीनामा (कृष्णा सोबती), खुदा सही सलामत है (रवीन्द्र कालिया), मैला आँचल, परती परिकथा (रेणु), जल टूटता हुआ (रामदरश मिश्र), सोना माटी (विवेकी राय), नाच्यो बहुत गोपाल (अमृत लाल नागर), अपना मोर्चा (काशीनाथ सिंह), मुर्दाघर (जगदम्बा प्रसाद दीक्षित), काला सवार (हृदयेश), महाभोज (मन्नू भंडारी), यथा प्रस्तावित (गिरिराज किशोर), प्रतिबद्ध (सतीश जमाली), झीनी-झीनी बीनी चदरिया (अब्दुल बिस्मिल्लाह), सावधान : नीचे आग है (संजीव कुमार), पहला पड़ाव (श्रीलाल शुक्ल) आदि उल्लेखनीय है। इनकी समीक्षा करते हुए जगदीश जी ने अपनी समाजशास्त्रीय आलोचना दृष्टि का परिचय दिया है और अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों की गहन पड़ताल करते हुए अपनी चिन्ताओं को भी मुखर रूप में स्पष्ट किया है। उन्होंने पूरी पुस्तक को तीन खण्डों में तैयार किया है- विचारपक्ष-१, विचारपक्ष-२ और रचना पक्ष। स्पष्ट हैकि उन्होंने उपन्यासों की समीक्षा करने से पहले उपन्यास सम्बन्धी विचारों और धारणाओं को निरूपित किया, साथ ही उपन्यासों की रचना-भूमि को समझने के लिए तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक जीवन संदर्भो को भी आलोचनात्मक विवेक के साथ रेखांकित किया। इससे रचना और रचनासमय को समझने में बड़ी सुविधा हुई है। उपन्यासों की समीक्षा के लिए उन्होंने जो शीर्षक दिए हैं, वे उनकी दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए काफी है। विपात्र : विचार दृष्टि का नया उजास, झूठा-सच : साम्प्रदायिकता के ज़हर की पहचान, आधा गाँव : गलत निर्णय का शाश्वत दण्ड भोग, मैला आँचल : भारत में आइल सुराज, अलग-अलग वैतरणी : पलायन की त्रासदी आदि समीक्षा-शीर्षकों से यह स्पट होता है कि जगदीश जी ने उपन्यासों की केन्द्रीय चेतना को रेखांकित करने की भरपूर कोशिश की है। इतना अवश्य है कि उनका ध्यान उपन्यासों के कला-पक्ष पर बहुत कम गया है, उन्होंने ज्यादातर सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो को ही उद्घाटित किया है और अपनी जनपक्षधरता एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि को ज्यादा तरजीह दी है। फिर भी उनकी कथा-समीक्षा उन्हें एक जिम्मेदार कथा-समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित करती है। दो खण्डों में प्रकाशित 'पूर्वी उत्तर प्रदेश का साहित्यिक परिदृश्य' और 'इक्कीसवीं सदी : कविता और समाज' नामक पुस्तकों से जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने साहित्येतिहास लेखक और अनुसंधानकर्ता के साथ-साथ अपने समय की रचनाशीलता की निकटतम पहचान करने वाले सजग आलोचक के रूप में उपस्थित किया है। परमानंद श्रीवास्तव ने लिखा है- 'वरिष्ठ कवि व आलोचक जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने 'पूर्वी उत्तर प्रदेश का साहित्यिक परिदृश्य' नाम से जो महाग्रंथ लिखा है, वह इतिहास से अधिक अनुसंधान है। एक विस्तृत देशकाल में अपने परिचित अंचल का इतिहास लिखना और साहित्य-संस्कृति को संश्लिष्ट करके देखना-जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने इसे जिस तरह से संभव किया है, वह पूरे साहित्य-संसार को स्वागतयोग्य लगेगा। -----कहना न होगा कि जगदीश नारायण श्रीवास्तव का यह महाग्रंथ एक ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।' डॉ. रामचन्द्र तिवारी की दृष्टि में यह शोध भी है और आलोचना भी।' डॉ. केदार नाथ सिंह इसे 'साहित्येतिहासिक कृति मानते हुए यह आशा व्यक्त करते हैं कि भविष्य के इतिहासकारों के लिए यह एक आधार ग्रंथ का काम करेगी।' जगदीश नारायण श्रीवास्तव कहते हैं- 'अपने परिक्षेत्र के साहित्यकारों के सपनों का एक छोटासा कोलाज मैंने इस पुस्तक में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। जाहिर है कि इस पुस्तक में पूर्वी उत्तर प्रदेश के साहित्यकारों के साहित्य की विविध रंगी छवि और चेतना को आलोचनात्मक विवेक के साथ संरक्षित किया गया है। इसलिए यह पुस्तक साहित्येतिहास लेखकों, आलोचकों और अनुसंधाताओं के लिए मूल स्रोत जैसा कार्य करेगी-तथ्य के लिए भी और दृष्टि के लिए भी।


      जगदीश जी आलोचनात्मक प्रतिभा के धनी हैं। भले ही वे धुरन्धर आलोचक न हों, आलोचना के अखाड़े के पहलवान न हों, अकादमिक बहसों के योद्धा न हो लेकिन रचना के मर्म को समझने वाले और सही ढंग से रेखांकित करने वाले सहृदय समीक्षक अवश्य हैं। इस पुस्तक में उनका समीक्षक बराबर सक्रिय रहा है। उन्होंने भारतेन्दु से लेकर आज तक के साहित्यकारों के काव्य, निबन्ध, कथा, आलोचना, संस्मरण आदि विभिन्न विधाओं से संबंधित साहित्य का जैसा आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक जानकारी के साथ परिचय दिया है, वह सराहनीय है। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के साहित्यिक परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए उसके उजले-अंधेरे कणों की पहचान कर' 'उजले कणों के निरन्तर विकास के लिए साधना की है। वे लिखते हैं- 'मेरी कोशिश रही है कि परम्परा में जो प्रगतिशील तत्त्व छिपे हों उन्हें ढूँढ लें और उनके गर्भ से जो वर्तमान की ताजा कोपलें फूट रही हैं, उन्हें पहचान हूँ' उन्होंने अपनी इस पतिभा का अच्छी तरह निर्वाह किया है और नई से नई प्रतिभा को जानने-पहचानने की पूरी कोशिश की है।


      'इक्कीसवीं सदी : कविता और समाज में जगदीश जी ने हिन्दी कविता और समाज के अन्त:संबंधों की पहचान करने का उल्लेखनीय कार्य किया है। वे मानते हैं कि साहित्य और समाज के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। उनकी दृष्टि में 'राजनीति और समाजनीति साहित्य के कोई गरीब रिश्तेदार नहीं हैं' अर्थात- साहित्य के साथ उनका अहम संबंध है, उसकी अहमियत को स्वीकारना सत्य को स्वीकारना है और उनकी उपेक्षा करना अपनी हेठी या अहंवादित को प्रदर्शित करना है लेकिन जगदीश जी साहित्य और समाज के बीच एकरेखीय संबंध नहीं मानते हैं। वे लिखते हैं- चूंकि भाषा सामाजिक सम्पदा है, अतः मानकर चलते हैं कि साहित्य समाजविमुख नहीं हो सकता।


      हमारे लिए व्यक्ति भी उपेक्षणीय नहीं है क्योंकि वह समाज की अन्तर्युक्त इकाई है। इस हिंसक समय में विनाश के विरुद्ध साहित्य-सृजन हम लेखकों के लिए एकमात्र प्रतिरोध और बचाव हैं। हम बच नहीं सकते लेकिन कुछ बचा तो सकते हैं।' पर इसी के साथ वे यह भी रेखांकित करते हैं कि सृजन की केवल एक सरणि नहीं हो सकती, उसमें विविधता भी जरूरी है, हाँ संघर्ष काल में जो रोशनी दिखाई पड़ती है, उसको पाने के लिए एकजुटता जरूरी है- 'जरूरी नहीं कि व्यक्ति और समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुक्ति के लिए संघर्षरत बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों में मतैक्य हो ही, पर एक सुचिन्तित राह पर चलते हुए, जंगल-पहाड़ लाँघते हुए जो रोशनी दिखाई दे रही हो, उसकी तरफ बढ़ने के लिए एकजुटता जरूरी है नहीं तो राह से गुजरते हुए कांटे-कूसे के बीच एक आपसी सहयात्रा स्थगित हो सकती है।' अपनी इस धारणा के साथ उन्होंने इक्कीसवीं सदी में रची जा रही हिन्दी कविता की विस्तृत समीक्षा की है किन्तु यह समीक्षात्मक लेखन किसी सुव्यवस्थित योजना का परिणाम नहीं है। इसमें उन्होंने स्वतंत्र रूप से लिखे गए लेखों को संकलित किया है। कुछ लेख साहित्य, समाज, देश-काल, गति-संघर्ष, उत्थान-पतन, ह्रास-विकास की मीमांसा के साथ हिन्दी कविता की विकासमान यात्रा का बोध कराते हैं और कुछ लेख इक्कीसवीं सदी के कवियों का समीक्षात्मक परिचय देतेहैं। भूमण्डलीकरण, पूँजीवाद, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रसार, उदारीकरण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, हिन्दुस्तानी कृषक समाज, स्त्री-विमर्श, दलित विमर्श, बाजारवाद आदि पर विस्तृत विचार करते हुए जगदीश जी ने तमाम कवियों की काव्य यात्रा का सारगर्भित मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। जगदीश जी की दृष्टि इक्कीसवीं सदी में हो रहे व्यापक परिवर्तनों पर बराबर रही हैऔर उस परिवर्तनों के बीच से नए रूप-रंग के साथ उभरती हुई हिन्दी कविता और समाज पर भी, इसलिए उन्होंने समय, समाज और कविता के रिश्तों की गहरी पड़ताल करते हुए काफी उत्तेजक टिप्पणियाँ भी की हैंवे यह स्पष्ट करते हैं कि इस ग्लोबल समय और उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते लोगों में कविता को समझने-सराहने के लिए समय नहीं रह गया है। वे मानते हैं कि जब तक समाज के ढाँचे में परिवर्तन नहीं होगा तब तक कविता को यह नियति झेलनी पड़ेगी।


      इसीलिए आज लिखी जा रही कविता एक विराट् सामाजिक मैदान की क्षुब्ध-अक्षुब्ध संवेदना और भाषा शिल्प की कविता है। इसमें अनेक धाराएँ हैं, शिखर नहीं हैं।' इक्कीसवीं सदी का हिन्दी कविता और समाज पर विचार करते-करते जगदीश जी यह चिन्ता व्यक्त करते हैं- 'समाज से भाईचारा, आपसकारी, सहिष्णुता, प्रेम, सौहार्द कौमों के संकीर्ण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देकर गायब किया जा रहा है। वे प्रश्न करते हैं- 'सवाल यह है कि क्या आज भी हम इतने मूढ़ या संकीर्ण हैं कि अपने पूर्वजों की गलतियों को दुहराते रहें? स्मृति में जाने का यह अर्थ नहीं कि तमाम खराब खाते फिर खोल दिए जाएं।'


    अन्त में जगदीश जी के दो गंतव्यों को रेखांकित करना जरूरी लग रहा है। एक है उनकी समीक्षा-दृष्टि, दूसरा समीक्षक का कार्य। वे लिखते हैं- 'कविता वह ताला हैजिसमें किसी दूसरे की दी हुई ताली नहीं लगती, बल्कि नई पीढ़ी के लेखक, कवि, चित्रकार को अपने देश-कालपात्र के हिसाब से खुद की ताली ईजाद करनी पड़ती है।' वे स्पष्टतः कहते हैं-'सामाजिक प्राणी होने के नाते एक साहित्यकार भी सामाजिक मूल्यों के प्रश्न पर संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष उसकी कृति द्वारा ही मूल्यांकित होना चाहिए।'----- कृति के माध्यम से सामाजिक पृष्ठभूमि और साहित्य के उत्पादन के पारस्परिक संबंधों तथा साहित्य सर्जन प्रक्रिया के निर्धारक आर्थिक-सामाजिक कारणों का विश्लेषण किया जाना चाहिएइसी तरह वे आलोचक के पास भी आलोक को देखने वाले लोचन की जरूरत स्वीकार करते हैं ताकि वह खुद को भी शक की नजर से देख सके, विचारधारा की परख कर सके।' कहा जा सकता हैकि जगदीश जी न तो बहुदृष्टि के लेखक हैं, न आलोचक। वे रचना के भीतर से उसके मर्म को पहचानने के हिमायती हैं, साथ ही उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को भी जानना-समझना जरूरी समझते हैं।


      इतने महत्वपूर्ण ग्रंथों को लिखने वाले जगदीश जी को सरकारी या गैर सरकारी यानि किसी तरह का पुरस्कार सम्मान नहीं मिला। इसका कारण जो भी हो, लेकिन एक बड़ा कारण उनकी एकांत साधना है जिसमें लिखने-रचने के लिए लोगों से पुरस्कार-सम्मान पाने की जैसे लालसा ही न रही हो। उन्होंने कभी इस तरह का दुख-दर्द भी नहीं व्यक्त किया। जहाँ अपने को हर तरह से स्थापित-प्रतिष्ठित करने की होड़ लगी हो, सभी मान-सम्मान पा जाने के लिए हर तरह के तिकड़म कर रहे हों, वहाँ एकान्त साधक को कुछ न मिलना ही शायद सर्वस्व मिलना है-आत्म संतोष से बढ़कर कुछ भी नहीं। तुलसीदास ने भी 'स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा' लिखी थी, जगदीश जी ने जो कुछ लिखा स्वान्तः सुखाय ही लिखा। हर रचना के प्रकाशन के साथ उनकी उत्फुल्लता देखते बनते थी जबकि उसके लिए वे काफी धन व्यय भी कर चुके होते थे।


      देवेन्द्र कुमार बंगाली, परमानंद श्रीवास्तव और केदारनाथ सिंह के साथ एक अनन्त यात्रा में सम्मिलित होने के लिए जगदीश जी परम संतोष के साथ अनन्त में विलीन तो हो गए लेकिन बार-बार मन यह कहता है-यदि कुछ दिन और जीवित रहते तो शायद कोई और अनुकृति हिन्दी समाज को समर्पित करते। वे नहीं हैं लेकिन उनके साहित्य-पुष्प की सुगन्ध तो चहुर्दिक फैली हुई है।


                                                                              सम्पर्क : डी-55, सुरजकुण्ड कॉलोनी, गोरखपुर-273015 मो.नं. : 9451952715